अथर्ववेद - काण्ड 16/ सूक्त 6/ मन्त्र 8
सूक्त - उषा,दुःस्वप्ननासन
देवता - आसुरी जगती
छन्दः - यम
सूक्तम् - दुःख मोचन सूक्त
कु॒म्भीका॑दू॒षीकाः॒ पीय॑कान् ॥
स्वर सहित पद पाठकु॒म्भीका॑: । दू॒षीका॑: । पीय॑कान् ॥६.८॥
स्वर रहित मन्त्र
कुम्भीकादूषीकाः पीयकान् ॥
स्वर रहित पद पाठकुम्भीका: । दूषीका: । पीयकान् ॥६.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 16; सूक्त » 6; मन्त्र » 8
विषय - प्रभु-प्राप्ति के लिए वर्जनीय बातें
पदार्थ -
१. (ते) = वे गतमन्त्र में वर्णित 'उषस्पति+वाचस्पति' बननेवाले पुरुष (अमुष्मै) = उस प्रभु की प्राप्ति के लिए-प्रभु-प्राप्ति के उद्देश्य से-निम्न दुर्गुणों को अपने से (परा वहन्तु) = सुदूर [परे] प्राप्त करानेवाले हों। सबसे प्रथम (अरायान्) = [stingy, niggard] कृपणता की वृत्तियों को दूर करें। फिर (दुर्णाम्न:) = दुष्ट नामों को-अशुभ वाणियों को अपने से दूर करें तथा (सदान्या:) = [सदा नृ-war, cry, shout, नुवति] हमेशा गालियाँ न देते रहे। २. (कुम्भीकाः) = [swelling of the eyelids] पलकों के सदा सूजे रहने को हम दूर करें। शोक में क्रन्दन के कारण हमारी पलकें सदा सूजी न रहें। (दूषीका:) = [rheum of the eyes] आँखों के मल को हम अपने से दूर करें, द्वेष आदि से आँखें मलिन न हों तथा (पीयकान्) = [पीयते to drink] अपेय द्रव्यों [शराब आदि] के पीने की वृत्ति को अपने समीप न आने दें। ३. (जाग्रद् दुःष्वन्यम्) = जगाते हुए अशुभ स्वप्नों को अपने से दूर करें तथा (स्वप्ने दु:ष्ययम्) = सोते हुए अशुभ स्वप्नों को न लेते रहें। दिन में भी अशुभ कार्यों का ध्यान न आता रहे तथा रात्रि में स्वप्नावस्था में तो अशुभ बातों का ध्यान हो ही नहीं।
भावार्थ - प्रभु-प्रासि के मार्ग पर चलनेवाला व्यक्ति कृपणता, अशुभवाणी व अपशब्दों से दूर रहता है। यह शोक व द्वेष में फैसकर आँखों को विकृत नहीं कर लेता। यह शराब आदि अपेय पदार्थों का ग्रहण नहीं करता। जागते व सोते यह अशुभ स्वप्नों को नहीं लेता रहता।
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