अथर्ववेद - काण्ड 16/ सूक्त 6/ मन्त्र 10
सूक्त - उषा,दुःस्वप्ननासन
देवता - आर्ची उष्णिक्
छन्दः - यम
सूक्तम् - दुःख मोचन सूक्त
अना॑गमिष्यतो॒वरा॒नवि॑त्तेः संक॒ल्पानमु॑च्या द्रु॒हः पाशा॑न् ॥
स्वर सहित पद पाठअना॑गमिष्यत: । वरा॑न् । अवि॑त्ते: । स॒म्ऽक॒ल्पान् । अमु॑च्या: । द्रु॒ह: । पाशा॑न् ॥६.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
अनागमिष्यतोवरानवित्तेः संकल्पानमुच्या द्रुहः पाशान् ॥
स्वर रहित पद पाठअनागमिष्यत: । वरान् । अवित्ते: । सम्ऽकल्पान् । अमुच्या: । द्रुह: । पाशान् ॥६.१०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 16; सूक्त » 6; मन्त्र » 10
विषय - उपासक की तीन बातें
पदार्थ -
१. हे प्रभु के उपासक! तु (अनागमिष्यत:) = उन सब उत्तम पदार्थों को जो आते प्रतीत नहीं होते (अमुच्या:) = छोड़नेवाला बन। प्रयत्न में तो कमी नहीं करना, परन्तु व्यर्थ की आशाएँ नहीं लगाए रखना। 'ये तो मिल गया है, ये भी मिल जाएगा' इस प्रकार नहीं सोचते रहना। २. साथ ही (अवित्ते: संकल्पान्) = अनैश्वर्य के संकल्पों को भी तू छोड़नेवाला हो । निर्धनता के आ जाने की आकांक्षाओं से डरते न रहना। (द्रुहः पाशान्) = द्रोह की भावना के पाशों को भी तू छोड़। किसी के विषय में द्रोह की भावना को अपने हृदय में स्थान न देना।
भावार्थ - प्रभु का उपासक भविष्य की उज्ज्वल कल्पनाओं में नहीं उड़ता रहता। निर्धनता के आ जाने के भय से घबराया नहीं रहता और कभी भी द्रोह की भावना से युक्त नहीं होता।
इस भाष्य को एडिट करें