अथर्ववेद - काण्ड 16/ सूक्त 6/ मन्त्र 6
सूक्त - उषा,दुःस्वप्ननासन
देवता - निचृत आर्ची बृहती
छन्दः - यम
सूक्तम् - दुःख मोचन सूक्त
उ॒षस्पति॑र्वा॒चस्पति॑ना संविदा॒नो वा॒चस्पति॑रु॒षस्पति॑ना संविदा॒नः ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒ष: । पति॑:। वा॒च: । पति॑ना । स॒म्ऽवि॒दा॒न: । वा॒च: । पति॑: । उ॒ष: । पति॑ना । स॒म्ऽवि॒दा॒न: ॥६.६॥
स्वर रहित मन्त्र
उषस्पतिर्वाचस्पतिना संविदानो वाचस्पतिरुषस्पतिना संविदानः ॥
स्वर रहित पद पाठउष: । पति:। वाच: । पतिना । सम्ऽविदान: । वाच: । पति: । उष: । पतिना । सम्ऽविदान: ॥६.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 16; सूक्त » 6; मन्त्र » 6
विषय - उषा+वाक्, उषस्पति+वाचस्पति
पदार्थ -
१. 'हमारे जीवनों में गतमन्त्र में वर्णित सर्वाप्रियता न उत्पन्न हो जाए' इसके लिए हम प्रयत्न करें कि (उषा: देवी) = अन्धकार को दूर करनेवाली यह उषा (वाचा संविदाना) = स्तुति व ज्ञान की बाणियों के साथ मेलवाली हो-ऐकमत्यवाली हो, अर्थात् उषा में जागरित होकर हम प्रभु-स्तवनपूर्वक स्वाध्याय में प्रवृत्त हों। हमारी यह (वाग् देवी) = दिव्य गुणयुक्त वाणी (उषसा संविदाना) = उषा के साथ मेलवाली हो। उषाकाल में हम स्तोत्रों व ज्ञानवाणियों का ही उच्चारण करनेवाले बनें। २. प्रातः प्रबुद्ध होनेवाला व्यक्ति 'उषस्पति' है और ज्ञान की वाणियों का स्वामी बननेवाला व्यक्ति वाचस्पति' है। (उषस्पतिः वाचस्पतिना संविदान:) = उषस्पति वाचस्पति के साथ मेलवाला हो और (वाचस्पतिः उषस्पतिना संविदान:) = वाचस्पति उषस्पति के साथ मेलवाला हो, अर्थात एक व्यक्ति केवल उषस्पति व केवल वाचस्पति ही न बने, वह 'उपस्पति और वाचस्पति' दोनों बनने का प्रयत्न करे । वह प्रातः जागरणशील भी हो और प्रात: प्रबुद्ध होकर प्रभु-स्तवनपूर्वक स्वाध्याय में प्रवृत्त हो।
भावार्थ - हमारे जीवनों में 'उषा व वाक्' का मेल हो। हम 'उषस्पति व वाचस्पति' दोनों बनने का प्रयत्न करें। हमारे जीवनों में प्रात:जागरण के साथ प्रभु-स्तवन व स्वाध्याय जुड़े हुए हों।
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