अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 27/ मन्त्र 10
सूक्त - भृग्वङ्गिराः
देवता - त्रिवृत्
छन्दः - विराट्स्थाना त्रिष्टुप्
सूक्तम् - सुरक्षा सूक्त
त्रय॑स्त्रिंशद्दे॒वता॒स्त्रीणि॑ च वी॒र्याणि प्रिया॒यमा॑णा जुगुपुर॒प्स्व॑न्तः। अ॒स्मिंश्च॒न्द्रे अधि॒ यद्धिर॑ण्यं॒ तेना॒यं कृ॑णवद्वी॒र्या॑णि ॥
स्वर सहित पद पाठत्रयः॑ऽत्रिं॑शत्। दे॒वताः॑। त्रीणि॑। च॒। वी॒र्या᳡णि। प्रि॒य॒ऽयमा॑णाः। जु॒गु॒पुःः॒। अ॒प्ऽसु। अ॒न्तः। अ॒स्मिन्। च॒न्द्रे। अधि॑। यत्। हिर॑ण्यम्। तेन॑। अ॒यम्। कृ॒ण॒व॒त्। वी॒र्या᳡णि ॥२७.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
त्रयस्त्रिंशद्देवतास्त्रीणि च वीर्याणि प्रियायमाणा जुगुपुरप्स्वन्तः। अस्मिंश्चन्द्रे अधि यद्धिरण्यं तेनायं कृणवद्वीर्याणि ॥
स्वर रहित पद पाठत्रयःऽत्रिंशत्। देवताः। त्रीणि। च। वीर्याणि। प्रियऽयमाणाः। जुगुपुःः। अप्ऽसु। अन्तः। अस्मिन्। चन्द्रे। अधि। यत्। हिरण्यम्। तेन। अयम्। कृणवत्। वीर्याणि ॥२७.१०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 27; मन्त्र » 10
विषय - प्रियायमाणा:
पदार्थ -
१. (त्रयस्त्रिशद् देवता:) = तेतीस देव हैं। आठ वसु, ग्यारह रुद्र, बारह आदित्य, इन्द्र और प्रजापति (च) = और (त्रीणि वीर्याणि) = कायिक, वाचिक व मानसभेद से तीन वीर्य हैं। अप्स प्रजाओं में [आपो नारा इति प्रोक्ताः] (प्रियायमाणा:) = प्रभु को प्रीणित करनेवाले लोग (अन्तः) = अपने अन्दर इन देवों व वीयर्यों का (जुगपुः) रक्षण करते हैं। [सर्वा ह्यस्मिन् देवता गावो गोष्ठइवासते। 'सूर्य: चक्षुर्भूत्वा०, वायुः प्राणो भूत्वा० अग्निर्वाग् भूत्वा०'] जब हम यज्ञादि कर्मों से प्रभु-प्रीणन में प्रवृत्त होंगे तब अपने अन्दर देवों व वीर्यों का रक्षण कर पाएँगे। २. (अस्मिन्) = इस प्रभु-प्रीणन में प्रवृत्त (चन्द्रे) = आहादमय मनोवृत्तिवाले पुरुष में (यत्) = जो (हिरण्यम्) = हितरमणीय वीर्यशक्ति है, (तेन) = उस हिरण्य से ही (अयम्) = यह चन्द्र-मनःप्रसादयुक्त पुरुष (वीर्याणि कृणवत्) = कायिक, वाचिक व मानस शक्तिशाली कर्मों को करता है।
भावार्थ - हम यज्ञादि कर्मों के द्वारा प्रभु-प्रणीन में प्रवृत्त रहें। इससे वासनाओं से आक्रान्त न होकर हम अपने अन्दर हिरण्य [वीर्य] का रक्षण कर पाएंगे। इस सुरक्षित वीर्य द्वारा हम शरीर, मन व बुद्धि से पराक्रम के कार्य करते हुए दिव्य-गुण-सम्पन्न जीवनवाले बनेंगे।
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