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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 27

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 27/ मन्त्र 5
    सूक्त - भृग्वङ्गिराः देवता - त्रिवृत् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - सुरक्षा सूक्त

    घृ॒तेन॑ त्वा॒ समु॑क्षा॒म्यग्न॒ आज्ये॑न व॒र्धय॑न्। अ॒ग्नेश्च॒न्द्रस्य॒ सूर्य॑स्य॒ मा प्रा॒णं मा॒यिनो॑ दभन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    घृ॒तेन॑। त्वा॒। सम्। उ॒क्षा॒मि॒। अग्ने॑। आज्ये॑न। व॒र्धय॑न्। अ॒ग्नेः। च॒न्द्रस्य॑। सूर्य॑स्य। मा। प्रा॒णम्। मा॒यिनः॑। द॒भ॒न् ॥२७.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    घृतेन त्वा समुक्षाम्यग्न आज्येन वर्धयन्। अग्नेश्चन्द्रस्य सूर्यस्य मा प्राणं मायिनो दभन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    घृतेन। त्वा। सम्। उक्षामि। अग्ने। आज्येन। वर्धयन्। अग्नेः। चन्द्रस्य। सूर्यस्य। मा। प्राणम्। मायिनः। दभन् ॥२७.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 27; मन्त्र » 5

    पदार्थ -
    १. हे अग्ने अग्रणी प्रभो। आज्येन [अब्ज कान्ती] आपकी प्राप्ति की प्रबल कामना से आपको अपने हृदयदेश में (वर्धयन्) = बढ़ाता हुआ मैं (त्वा) = आपको (घृतेन) = मलों के क्षरण व ज्ञानदीप्ति से (समक्षामि) = अपने हृदय में सम्यक् सिक्त करता हूँ। मेरा हृदय आपकी भावना से ओतप्रोत हो जाता है। २. ऐसा होने पर मैं शरीर में शक्ति की अग्निवाला, मन में आहादवाला [चन्द्र] तथा मस्तिष्क में दीप्त ज्ञान के सूर्यवाला बनता हूँ। इस (अग्ने: चन्द्रस्य सूर्यस्य) = शरीर अग्नि, मन में चन्द्र तथा मस्तिष्क में सूर्य के (प्राणम्) = प्राण को (मायिन:) = मायाविनी वृत्तियाँ राक्षसीभाव (मा दभन्) = मत हिंसित करें। जब हम अग्नि, चन्द्र व सूर्य बनते हैं तब आसुरभावों से आक्रान्त नहीं होते।

    भावार्थ - हम प्रभु-प्राति की प्रबल कामना, मल-क्षरण व ज्ञानदीप्ति से प्रभु को हृदयों में आसीन करें। तब हम शरीर में 'अग्नि', मन में 'चन्द्र' तथा मस्तिष्क में 'सूर्य' बनेंगे। ऐसा होने पर हम आसुरभावों से आक्रान्त नहीं होंगे।

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