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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 27

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 27/ मन्त्र 2
    सूक्त - भृग्वङ्गिराः देवता - त्रिवृत् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - सुरक्षा सूक्त

    सोम॑स्त्वा पा॒त्वोष॑धीभि॒र्नक्ष॑त्रैः पातु॒ सूर्यः॑। मा॒द्भ्यस्त्वा॑ च॒न्द्रो वृ॑त्र॒हा वातः॑ प्रा॒णेन॑ रक्षतु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सोमः॑। त्वा॒। पा॒तु॒। ओष॑धीभिः। नक्ष॑त्रैः। पा॒तु॒। सूर्यः॑। मा॒त्ऽभ्यः। त्वा॒। च॒न्द्रः। वृ॒त्र॒ऽहा। वातः॑। प्रा॒णेन॑। र॒क्ष॒तु॒ ॥२७.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सोमस्त्वा पात्वोषधीभिर्नक्षत्रैः पातु सूर्यः। माद्भ्यस्त्वा चन्द्रो वृत्रहा वातः प्राणेन रक्षतु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सोमः। त्वा। पातु। ओषधीभिः। नक्षत्रैः। पातु। सूर्यः। मात्ऽभ्यः। त्वा। चन्द्रः। वृत्रऽहा। वातः। प्राणेन। रक्षतु ॥२७.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 27; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    १. (सोमः) = वह सौम्य प्रभु (त्वा) = तुझे (ओषधीभिः) = दोषों का दहन करनेवाली ओषधियों के द्वारा (पातु) = रक्षित करे। हम सौम्य वानस्पतिक भोजनों द्वारा दीर्घजीवन प्राप्त करें। 'आग्नेय पदार्थ रोगों के भेषज है, नकि भोजन। (सूर्य:) = सूर्यसम देदीप्यमान प्रभु (नक्षत्रै:) = नक्षत्रों के द्वारा हमारा (पातु) = रक्षण करें। सब नक्षत्रों की हमारे साथ अनुकूलता हो 'सर्व शान्ति:'। २. वह (वृत्रहा) = सब वासनाओं का विनाश करनेवाला (चन्द्रः) = आहादमय प्रभु (माद्धयः) = मासों के द्वारा-[मस्-to measure] प्रमाणों के द्वारा-तत्त्वज्ञान को प्राप्त कराने के द्वारा (त्वा) = तेरी (रक्षतु) = रक्षा करें तथा (वात:) = निरन्तर गतिशील प्रभु (प्राणेन) = प्राणशक्ति के द्वारा हमारा रक्षण करें।

    भावार्थ - प्रभु हमें उत्तम ओषधियों, नक्षन्नों, तत्त्वज्ञान तथा प्राणशक्ति के द्वारा रक्षित करें।

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