अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 47/ मन्त्र 9
त्वयि॑ रात्रि वसामसि स्वपि॒ष्याम॑सि जागृ॒हि। गोभ्यो॑ नः॒ शर्म॑ य॒च्छाश्वे॑भ्यः॒ पुरु॑षेभ्यः ॥
स्वर सहित पद पाठत्वयि॑। रा॒त्रि॒। व॒सा॒म॒सि॒। स्व॒पि॒ष्याम॑सि। जा॒गृ॒हि। गोभ्यः॑। नः॒। शर्म॑। य॒च्छ॒। अश्वे॑भ्यः। पुरु॑षेभ्यः ॥४७.९॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वयि रात्रि वसामसि स्वपिष्यामसि जागृहि। गोभ्यो नः शर्म यच्छाश्वेभ्यः पुरुषेभ्यः ॥
स्वर रहित पद पाठत्वयि। रात्रि। वसामसि। स्वपिष्यामसि। जागृहि। गोभ्यः। नः। शर्म। यच्छ। अश्वेभ्यः। पुरुषेभ्यः ॥४७.९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 47; मन्त्र » 9
विषय - सुख की नींद
पदार्थ -
१. हे (रात्रि) = रात्रिदेवि! त्वयि-रक्षण की व्यवस्था होने पर तुझमें वसामसि-निवास करते हैं। तुझमें ही हम (स्वपिष्यामसि) = निद्रा करेंगे। (जागृहि) = तू हमारे रक्षण के लिए जागरित हो। तुझमें नियुक्त सब रक्षक पुरुष जागरित रहें। २. तू (न:) = हमारी (गोभ्यः) = गौओं के लिए (अश्वेभ्य:) = अश्वों के लिए (पुरुषेभ्य:) = पुरुषों के लिए (शर्म यच्छ) = सुख दे।
भावार्थ - रक्षा की व्यवस्था के उत्तम होने से हम रात्रि में आराम से सो सकें। हमारी गौवें घोड़े व सब पुरुष सुरक्षित हों।
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