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अथर्ववेद > काण्ड 2 > सूक्त 27

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  • अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 27/ मन्त्र 5
    सूक्त - कपिञ्जलः देवता - ओषधिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शत्रुपराजय सूक्त

    तया॒हं शत्रू॑न्त्साक्ष॒ इन्द्रः॑ सालावृ॒काँ इ॑व। प्राशं॒ प्रति॑प्राशो जह्यर॒सान्कृ॑ण्वोषधे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तया॑ । अ॒हम् । शत्रु॑न् । सा॒क्षे॒ । इन्द्र॑: । सा॒ला॒वृ॒कान्ऽइ॑व । प्राश॑म् । प्रति॑ऽप्राश: । ज॒हि॒ । अ॒र॒सान् । कृ॒णु॒ । ओ॒ष॒धे॒ ॥२७.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तयाहं शत्रून्त्साक्ष इन्द्रः सालावृकाँ इव। प्राशं प्रतिप्राशो जह्यरसान्कृण्वोषधे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तया । अहम् । शत्रुन् । साक्षे । इन्द्र: । सालावृकान्ऽइव । प्राशम् । प्रतिऽप्राश: । जहि । अरसान् । कृणु । ओषधे ॥२७.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 27; मन्त्र » 5

    पदार्थ -

    १. (तया) = गतमन्त्र में वर्णित पाटा नामक ओषधि से (अहम्) = मैं (शत्रून्) = रोगरूप शत्रुओं का (साक्षे) = पराभव करता हूँ, उसी प्रकार (इव) = जैसे (इन्द्रः) = राजा (सालावृकान्) = कुत्तों व गीदड़ों की वृत्तिवाले पुरुषों का पराभव करता है [शालावृक-a dog, aa jackal] | इन्द्र जेसे कुत्तों का अभिभव करता है, उसी प्रकार मैं पाटा ओषधि से रोगों को अभिभूत करता है। २. हे (ओषधे) = ओषधे! तू (प्राशम्) = इस प्रकृष्ट पथ्यभोजी के (प्रतिमाश:) = विरोधी बनकर खा जानेवाले रोगों का जहि-विनाश कर और अरसान् (कृणु) = उन्हें शुष्क व मृत कर दें।

    भावार्थ -

    पाटा नामक ओषधि से मैं रोगकृमियों को अभिभूत कर दूं।

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