अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 27/ मन्त्र 4
सूक्त - कपिञ्जलः
देवता - ओषधिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुपराजय सूक्त
पा॒टामिन्द्रो॒ व्या॑श्ना॒दसु॑रेभ्य॒ स्तरी॑तवे। प्राशं॒ प्रति॑प्राशो जह्यर॒सान्कृ॑ण्वोषधे ॥
स्वर सहित पद पाठपा॒टाम् । इन्द्र॑: । वि । आ॒श्ना॒त् । असु॑रेभ्य: । स्तरी॑तवे । प्राश॑म् । प्रति॑ऽप्राश: । ज॒हि॒ । अ॒र॒सान् । कृ॒णु॒ । ओ॒ष॒धे॒ ॥२७.४॥
स्वर रहित मन्त्र
पाटामिन्द्रो व्याश्नादसुरेभ्य स्तरीतवे। प्राशं प्रतिप्राशो जह्यरसान्कृण्वोषधे ॥
स्वर रहित पद पाठपाटाम् । इन्द्र: । वि । आश्नात् । असुरेभ्य: । स्तरीतवे । प्राशम् । प्रतिऽप्राश: । जहि । अरसान् । कृणु । ओषधे ॥२७.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 27; मन्त्र » 4
विषय - असुरों की पराजय
पदार्थ -
१. (इन्द्रः) = इन्द्र ने (असुरेभ्यः तरीतवे) = असुरों से-प्राणशक्ति नाशक रोगकृमियों से पार पाने के लिए (पाटाम) = पाटा नामक ओषधि का (व्याश्नात्) = भक्षण किया। यह पाटा 'वातपित्तचरनी' तथा 'कफकण्ठरूजापहा' होने से रोगों की नाशक है। वात-पित व कफ तीनों के विकारों से होनेवाले कष्टों में यह उपयोगी है, अत: इन्द्र ने इसका भक्षण किया। २. इन्द्र से भक्षण की गई है (ओषधे) = ओषधे! तू (प्राशम्) = उत्कृष्ट भोजनवाले के (प्रतिप्राशम्) = विरोधी बनकर खा जानेवाले इन रोगों को (जहि) = नष्ट कर दे। तू इन रोगकृमियों को (अरसान्) = नीरस व शुष्क (कृणु) = कर दे।
भावार्थ -
पाटा ओषधि वात-पित व कफ-जनित सभी विकारों की शान्ति के लिए उपयोगी है।
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