अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 27/ मन्त्र 3
सूक्त - कपिञ्जलः
देवता - ओषधिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुपराजय सूक्त
इन्द्रो॑ ह चक्रे त्वा बा॒हावसु॑रेभ्य॒ स्तरी॑तवे। प्राशं॒ प्रति॑प्राशो जह्यर॒सान्कृ॑ण्वोषधे ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑: । ह॒ । च॒क्रे॒ । त्वा॒ । बा॒हौ । असु॑रेभ्य: । स्तरी॑तवे । प्राश॑म् । प्रति॑ऽप्राश: । ज॒हि॒ । अ॒र॒सान् । कृ॒णु॒ । ओ॒ष॒धे॒ ॥२७.३॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रो ह चक्रे त्वा बाहावसुरेभ्य स्तरीतवे। प्राशं प्रतिप्राशो जह्यरसान्कृण्वोषधे ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्र: । ह । चक्रे । त्वा । बाहौ । असुरेभ्य: । स्तरीतवे । प्राशम् । प्रतिऽप्राश: । जहि । अरसान् । कृणु । ओषधे ॥२७.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 27; मन्त्र » 3
विषय - इन्द्र द्वारा पाटा का धारण
पदार्थ -
१. यह पाटा ओषधि भग्न-सन्धानकरी' है, अत: (इन्द्रः) = सेनापति ने (ह) = निश्चय से ही पाटा ओषधे! (त्वा) = तुझे (असरेभ्यः) = असुरों से (तरीतवे) = पार पाने के लिए (बाहौ चक्रे) = अपनी भुजाओं पर धारण किया। संग्राम में विदारणों का भय बना ही रहता है। यह पाटा ओषधि इन विदारणों का सर्वोतम उपचार है, अत: सेनापति इसे सदा अपने समीप रखता है, मानो इसे बाहु पर ही धारण किये रहता है। २. हे (ओषधे) = ओषधे! तू (प्राशम्) = पथ्यसेवी के (प्रतिप्राश:) = विरोधी होकर खा जानेवाले रोगों को (जहि) = नष्ट कर। इन रोगकृमियों को (अरसान् कृणु) = शुष्क कर दे।
भावार्थ -
पाटा ओषधि भग्नसन्धानकरी है, अतः संग्राम में घावों के उपचार में अत्यन्त उपयुक्त है, इसी से सेनापति इसे सदा समीप रखता है।
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