अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 27/ मन्त्र 7
सूक्त - कपिञ्जलः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुपराजय सूक्त
तस्य॒ प्राशं॒ त्वं ज॑हि॒ यो न॑ इन्द्राभि॒दास॑ति। अधि॑ नो ब्रूहि॒ शक्ति॑भिः प्रा॒शि मामुत्त॑रं कृधि ॥
स्वर सहित पद पाठतस्य॑ । प्राश॑म् । त्वम् । ज॒हि॒ । य: । न॒: । इ॒न्द्र॒ । अ॒भि॒ऽदास॑ति । अधि॑ । न॒: । ब्रू॒हि॒ । शक्ति॑ऽभि: । प्रा॒शि । माम् । उत्ऽत॑रम् । कृ॒धि॒ ॥२७.७॥
स्वर रहित मन्त्र
तस्य प्राशं त्वं जहि यो न इन्द्राभिदासति। अधि नो ब्रूहि शक्तिभिः प्राशि मामुत्तरं कृधि ॥
स्वर रहित पद पाठतस्य । प्राशम् । त्वम् । जहि । य: । न: । इन्द्र । अभिऽदासति । अधि । न: । ब्रूहि । शक्तिऽभि: । प्राशि । माम् । उत्ऽतरम् । कृधि ॥२७.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 27; मन्त्र » 7
विषय - रोगों का नाश
पदार्थ -
१. है (इन्द्र) = शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभो! (य:) = जो रोग (न: अभिदासति) = हमें सब प्रकार से उपक्षीण करता है, (तस्य) = उस रोग की प्राशम् मुझे खा जाने की शक्ति को (त्वम् जहि) = तू नष्ट कर दे। २. (शक्तिभिः) = शक्तियों के द्वारा (नः अधिहि) = हमारे पक्ष में निर्णय दीजिए [speak in favour of], अर्थात् हम रोगों को जीत लें। (प्राशि) = भोजन के प्रकृष्ट होने पर (माम्) = मुझे (उत्तरं कृधि) = उत्कृष्ट कीजिए। मैं रोग को (पादाक्रान्त) = करनेवाला बनूं।
भावार्थ -
प्रभु रोग की घातक शक्ति को नष्ट करें और मुझे रोग को जीतने की शक्ति दें।
विशेष -
सम्पूर्ण सूक्त में रोग को पराजित करने की प्रार्थना है। रोगों को नष्ट करके हम दीर्घजीवन प्राप्त कर सकते हैं। इस दीर्घजीवन का ही उल्लेख अगले सूक्त में हैं। इसे प्राप्त करनेवाला 'शम्भूः' इसका ऋषि है। यह अपने में शान्ति उत्पन्न करता है। इसकी प्रार्थना का स्वरूप यह है