अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 27/ मन्त्र 2
सूक्त - कपिञ्जलः
देवता - ओषधिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुपराजय सूक्त
सु॑प॒र्णस्त्वान्व॑विन्दत्सूक॒रस्त्वा॑खनन्न॒सा। प्राशं॒ प्रति॑प्राशो जह्यर॒सान्कृ॑ण्वोषधे ॥
स्वर सहित पद पाठसु॒ऽप॒र्ण: । त्वा॒ । अनु॑ । अ॒वि॒न्द॒त् । सू॒क॒र: । त्वा॒ । अ॒ख॒न॒त् । न॒सा । प्राश॑म् । प्रति॑ऽप्राश: । ज॒हि॒ । अ॒र॒सान् । कृ॒णु॒ । ओ॒ष॒धे॒ ॥२७.२॥
स्वर रहित मन्त्र
सुपर्णस्त्वान्वविन्दत्सूकरस्त्वाखनन्नसा। प्राशं प्रतिप्राशो जह्यरसान्कृण्वोषधे ॥
स्वर रहित पद पाठसुऽपर्ण: । त्वा । अनु । अविन्दत् । सूकर: । त्वा । अखनत् । नसा । प्राशम् । प्रतिऽप्राश: । जहि । अरसान् । कृणु । ओषधे ॥२७.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 27; मन्त्र » 2
विषय - सुपर्ण तथा सूकर द्वारा
पदार्थ -
१. हे (ओषधे) = पाटा नामक ओषधे ! (त्वा) = तुझे (सुपर्ण:) = गरुड़ (अनु अविन्दत्) = क्रमश: खोज निकालता है। विष आदि के अपहरण के लिए गरुड़ को इसकी आवश्कता रही है। वह वासनारूप [Instinctively] से इस ओषधि को खोज लेता है। २. (सूकरः) = सूअर (त्वा) = तुझे (नसा) = थुथनी से [नासिका सहित दंष्ट्रा से] (अखनत्) = खोद लेता है। भूमि के अन्दर उत्पन्न होनेवाली इस ओषधि को यह बाहर निकाल लेता है। ३. हे ओषधे! तू (प्राशम्) = पथ्यसेवी के (प्रतिप्राश:) = विरोधी बनकर उसे खा जानेवाले रोगों को (जहि) = नष्ट कर दे। इन रोगकृमियों को (अरसान् कृणु) = शुष्क कर दे।
भावार्थ -
पाटा ओषधि को सुपर्ण और सूअर प्रभु-प्रदत्त बासना से ढूँढ लेते हैं और इसके सेवन से विषैले प्रभावों को दूर करते हैं।
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