अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 34/ मन्त्र 3
सूक्त - अथर्वा
देवता - अग्निः, विश्वकर्मा
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - पशुगण सूक्त
ये ब॒ध्यमा॑न॒मनु॒ दीध्या॑ना अ॒न्वैक्ष॑न्त॒ मन॑सा॒ चक्षु॑षा च। अ॒ग्निष्टानग्रे॒ प्र मु॑मोक्तु दे॒वो वि॒श्वक॑र्मा प्र॒जया॑ संररा॒णः ॥
स्वर सहित पद पाठये । ब॒ध्यमा॑नम् । अनु॑ । दीध्या॑ना: । अ॒नु॒ऽऐक्ष॑न्त । मन॑सा । चक्षु॑षा । च॒ । अ॒ग्नि: । तान् । अग्रे॑ । प्र । मु॒मो॒क्तु॒ । दे॒व: । वि॒श्वऽक॑र्मा । प्र॒ऽजया॑ । स॒म्ऽर॒रा॒ण: ॥३४.३॥
स्वर रहित मन्त्र
ये बध्यमानमनु दीध्याना अन्वैक्षन्त मनसा चक्षुषा च। अग्निष्टानग्रे प्र मुमोक्तु देवो विश्वकर्मा प्रजया संरराणः ॥
स्वर रहित पद पाठये । बध्यमानम् । अनु । दीध्याना: । अनुऽऐक्षन्त । मनसा । चक्षुषा । च । अग्नि: । तान् । अग्रे । प्र । मुमोक्तु । देव: । विश्वऽकर्मा । प्रऽजया । सम्ऽरराण: ॥३४.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 34; मन्त्र » 3
विषय - वीर्य-रक्षण व प्रभु-दर्शन
पदार्थ -
१. गतमन्त्र में वीर्य को अपने शरीर में सुरक्षित करने का उपदेश है। यही शरीर में वीर्य का बन्धन है। (ये) = जो लोग (बध्यमानम् अनु) = शरीर में बौधे जाते हुए व सुरक्षित किये जाते हुए वीर्य के अनुसार (दीध्याना:) = [दीधी to shine] चमकते हुए, तेजस्वी होते हुए, (मनसा) = मन से तथा (चक्षुषा) = चक्षु से (अन्वेक्षत) = अपने में आत्मा का दर्शन करते हैं। वीर्यरक्षण से बुद्धि तीन बनती है और इस तीव्र बुद्धि से प्रभु का दर्शन होता है। वीर्य-रक्षण करनेवाला पुरुष तेजस्वी बनता है, इसकी सब इन्द्रियाँ, मन व बुद्धि उत्कृष्ट बनते हैं। यह मन से उस आत्मा का मनन करता है तो आँख से सर्वत्र उसकी महिमा को देखता है। २. (तान्) = इन मनन व दर्शन करनेवाले पुरुषों को (अग्रिः) = वह अग्रणी प्रभु अग्रे सर्वप्रथम (प्रमुमोक्तु) = मोक्ष प्राप्त कराता है, वे प्रभु जोकि (देव:) = प्रकाशमय हैं, (विश्वकर्मा) = सृष्टि-रचनरूप कर्मवाले हैं और (प्रजया संरराण:) = सब प्रजाओं के साथ रमण करनेवाले हैं। वस्तुत: प्रजा' शब्द उनके लिए प्रयुक्त होता है, जो अपनी शक्तियों का प्रकृष्ट प्रादुर्भाव करनेवाले हैं। इनमें ही प्रभु का वास होता है।
भावार्थ -
वीर्य-रक्षण से मनुष्य दीप्त बनता है, प्रभु का दर्शन करता है और मोक्ष प्राप्त करता है।
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