अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 34/ मन्त्र 5
प्र॑जा॒नन्तः॒ प्रति॑ गृह्णन्तु॒ पूर्वे॑ प्रा॒णमङ्गे॑भ्यः॒ पर्या॒चर॑न्तम्। दिवं॑ गछ॒ प्रति॑ तिष्ठा॒ शरी॑रैः स्व॒र्गं या॑हि प॒थिभि॑र्देव॒यानैः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठप्र॒ऽजा॒नन्त॑: । प्रति॑ । गृ॒ह्ण॒न्तु॒ । पूर्वे॑ । प्रा॒णम् । अङ्गे॑भ्य: । परि॑ । आ॒ऽचर॑न्तम् । दिव॑म् । ग॒च्छ॒ । प्रति॑ । ति॒ष्ठ॒ । शरी॑रै: । स्व॒:ऽगम् । या॒हि॒ । प॒थिऽभि॑: । दे॒व॒ऽयानै॑: ॥३४.५॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रजानन्तः प्रति गृह्णन्तु पूर्वे प्राणमङ्गेभ्यः पर्याचरन्तम्। दिवं गछ प्रति तिष्ठा शरीरैः स्वर्गं याहि पथिभिर्देवयानैः ॥
स्वर रहित पद पाठप्रऽजानन्त: । प्रति । गृह्णन्तु । पूर्वे । प्राणम् । अङ्गेभ्य: । परि । आऽचरन्तम् । दिवम् । गच्छ । प्रति । तिष्ठ । शरीरै: । स्व:ऽगम् । याहि । पथिऽभि: । देवऽयानै: ॥३४.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 34; मन्त्र » 5
विषय - प्राणसाधना
पदार्थ -
१. (प्रजानन्तः) = प्रकृष्ट ज्ञानवाले, (पूर्वे) = अपना पालन और पूरण करनेवाले लोग (पर्याचरन्तम्) = शरीर में सर्वत्र गति-करते हुए (प्राणम्) = प्राण को (अङ्गेभ्यः प्रतिगृह्णन्तु) = सब अङ्गों से निरुद्ध करें-इसे सब अङ्गों में विचरण करने से रोककर अपने में ही स्थापित करें। २. इसप्रकार प्राणनिरोध के द्वारा ही हे जीव! तू (दिवं गच्छ) = प्रकाश को प्राप्त हो। प्राण-निरोध से वीर्यरक्षा होकर बुद्धि तीन बनती है। (शरीरैः प्रतितिष्ठा:) = इस प्राणनिरोध के द्वारा तू शरीरों से प्रतिष्ठित हो। तेरे 'स्थूल, सूक्ष्म और कारण'-सब शरीर ठीक हों। प्राण-निरोध के द्वारा (देवयानैः पथिभिः) = देवयान मार्गों से (स्वर्ग याहि) = स्वर्ग को प्राप्त कर। प्राण-निरोध से सब वासनाओं का विनाश होता है और उत्तम प्रवृत्ति होकर मनुष्य स्वर्ग को प्राप्त करता है-सदा देवयानमार्ग से चलता है-देवतुल्य प्रवृत्तिवाला होता है। ३. हमारे तीन कर्तव्य हैं-[क]ज्ञान प्राप्त करें, [ख] अपना पालन व पूरण करें, [ग] प्राणसाधना द्वारा प्राण को वश में करें। सदा ज्ञान-प्राप्ति में लगे रहने से हम प्रकाश को प्राप्त करेंगे [दिवं गच्छ]-हमारा दृष्टिकोण सुलझा हुआ होगा और हम सन्तान, धन, यश में फंसेंगे नहीं। यदि हम अपने पालन व पुरण का ध्यान करेंगे, तो 'प्रतितिष्ठा शरीरैः' हमारे शरीर बड़े ठीक रहेंगे। प्राण-साधना से चित्तवृत्ति का निरोध होने से हम देवायान-मार्ग से चलेंगे और स्वस्थ शरीर व स्वस्थ मस्तिष्क बनेंगे। ऐसा बनने में ही स्वर्ग का आनन्द है। मस्तिष्क स्वस्थ न हो तो हम पागलखाने में होते हैं, शरीर स्वस्थ न हो तो चिकित्सालय में। दोनों के स्वस्थ होने पर ही हम घर पर स्वर्ग-सुख का आनन्द अनुभव करते हैं।
भावार्थ -
प्राणनिरोध से शरीर स्वस्थ होता है, ज्ञान प्रकाश प्राप्त होता है और मनुष्य देवतुल्य प्रवृत्तिवाला बनता है।
विशेष -
इस सक्त में जीवन को अत्यन्त उत्कृष्ट बनाने का उल्लेख है। यह अङ्ग-प्रत्यङ्ग में रसवाला 'अङ्गिरा' बनता है और 'विश्वकर्मा' प्रभु का उपासन करता है -