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अथर्ववेद > काण्ड 2 > सूक्त 34

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  • अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 34/ मन्त्र 1
    सूक्त - अथर्वा देवता - पशुपतिः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - पशुगण सूक्त

    य ईशे॑ पशु॒पतिः॑ पशू॒नां चतु॑ष्पदामु॒त यो द्वि॒पदा॑म्। निष्क्री॑तः॒ स य॒ज्ञियं॑ भा॒गमे॑तु रा॒यस्पोषा॒ यज॑मानं सचन्ताम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । ईशे॑ । प॒शु॒ऽपति॑:। प॒शू॒नाम् । चतु॑:ऽपदाम् । उ॒त । य: । द्वि॒ऽपदा॑म् । नि:ऽक्री॑त: । स: । य॒ज्ञिय॑म् । भा॒गम् । ए॒तु॒ । रा॒य: । पोषा॑: । यज॑मानम् । स॒च॒न्ता॒म् ॥३४.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    य ईशे पशुपतिः पशूनां चतुष्पदामुत यो द्विपदाम्। निष्क्रीतः स यज्ञियं भागमेतु रायस्पोषा यजमानं सचन्ताम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । ईशे । पशुऽपति:। पशूनाम् । चतु:ऽपदाम् । उत । य: । द्विऽपदाम् । नि:ऽक्रीत: । स: । यज्ञियम् । भागम् । एतु । राय: । पोषा: । यजमानम् । सचन्ताम् ॥३४.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 34; मन्त्र » 1

    पदार्थ -

    १. (य:) = जो (पशुपति:) = सब प्राणियों का स्वामी[पशूनां पतिः] अथवा सर्वद्रष्टा व सर्वरक्षक प्रभु [पशुश्चासौ पतिश्च] (पशूनां ईशे) = सब पशुओं का ईश है, (चतुष्पदाम्) = जो भी चार पैरवाले पशु हैं उनके तो वे पशुपति ईश है ही, (उत) = और (यः) = जो पशुपति (द्विपदाम्) = दो पाँवोंवाले मनुष्यों के भी ईश है, (सः) = वह पशुपति (निष्क्रीत:) = विषय-त्यागरूप मूल्य से पुनः प्राप्त किये हुए (यज्ञियं भागम्) = यज्ञ-सम्बन्धी भाग को (एतु) = प्राप्त हो, अर्थात् हम वैषयिक वृत्तियों से ऊपर उठकर यज्ञों का सेवन करनेवाले हों और इन यज्ञों द्वारा उस प्रभु की उपासना करें। २. इसप्रकार उपासना करनेवाले (यजमानम्) = यज्ञशील पुरुष को (रायस्पोषाः सचन्ताम्) = धनों की पुष्टि समेवत हो।

    भावार्थ -

    प्रभु ही सबके ईश हैं। मनुष्य विषयों से पृथक होकर प्रभु को प्राप्त करता है और यज्ञों से उसका उपासन करता है। ऐसा करने पर यज्ञशील पुरुषों को धनों की कमी नहीं रहती।

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