अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 33/ मन्त्र 7
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - यक्षविबर्हणम्(पृथक्करणम्) चन्द्रमाः, आयुष्यम्
छन्दः - पथ्यापङ्क्तिः
सूक्तम् - यक्षविबर्हण
अङ्गेअ॑ङ्गे॒ लोम्नि॑लोम्नि॒ यस्ते॒ पर्व॑णिपर्वणि। यक्ष्मं॑ त्वच॒स्यं॑ ते व॒यं क॒श्यप॑स्य वीब॒र्हेण॒ विष्व॑ञ्चं॒ वि वृ॑हामसि ॥
स्वर सहित पद पाठअङ्गे॑ऽअङ्गे । लोम्नि॑ऽलोम्नि । य: । ते॒ । पर्व॑णिऽपर्वणि । यक्ष्म॑म् । त्व॒च॒स्य᳡म् । ते॒ । व॒यम् । क॒श्यप॑स्य । वि॒ऽब॒र्हेण॑ । विष्व॑ञ्चम् । वि । वृ॒हा॒म॒सि॒ ॥३३.७॥
स्वर रहित मन्त्र
अङ्गेअङ्गे लोम्निलोम्नि यस्ते पर्वणिपर्वणि। यक्ष्मं त्वचस्यं ते वयं कश्यपस्य वीबर्हेण विष्वञ्चं वि वृहामसि ॥
स्वर रहित पद पाठअङ्गेऽअङ्गे । लोम्निऽलोम्नि । य: । ते । पर्वणिऽपर्वणि । यक्ष्मम् । त्वचस्यम् । ते । वयम् । कश्यपस्य । विऽबर्हेण । विष्वञ्चम् । वि । वृहामसि ॥३३.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 33; मन्त्र » 7
विषय - अङ्ग-प्रत्यङ्गों में होनेवाले रोगों का नाश
पदार्थ -
१. पूर्व मन्त्र में शरीर के विशिष्ट अङ्गों से रोगों को दूर करने का संकेत हुआ है। अप्रसिद्ध अवयवों से भी उसके दूर करने का प्रतिपादन इस मन्त्र में किया गया है। हे रुग्ण! (ते) = तेरे (अड़े) = अड़े-अनुक्त सब अवयवों में, (लोम्नि लोम्नि) = सब रोम-कूपों में, (पर्वणि पर्वणि) = सब सन्धियों में होनेवाले (यक्ष्मम्) = रोग को (विवहामि) = मैं पृथक् करता हूँ। ३. (वयम्) = हम (ते) = तेरे (त्वचस्यम्) = त्वचा में होनेवाले (विष्वञ्चम्) = चक्षु आदि सब अवयवों में व्याप्त होनेवाले रोग को (कश्यपस्य) = [पश्यकस्य] ज्ञानी पुरुष के (वीबहॅण) = [बृह to destroy, to kill] रोगघातक प्रयोग से नष्ट करते हैं। ज्ञानी वैद्य रोग के मूलकारण को समझकर रोग को नष्ट करने का प्रयत्न करता है।
भावार्थ -
अङ्ग-प्रत्यङ्ग में होनेवाले,रोम-कूपों व जोड़ों में होनेवाले, त्वचा के विविध प्रदेशों में होनेवाले रोगों को नष्ट किया जाए।
विशेष -
अङ्ग-प्रत्यङ्ग से रोगोन्मूलन करके पूर्ण स्वस्थ होने का वर्णन इस सूक्त में हुआ है। अब स्वस्थ बनकर यह स्थिर व शान्त बनता है-'अथर्वा'। यह प्राणसाधना से मन को स्थिर करके पशुपति[प्रभु] का ध्यान करता है -