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अथर्ववेद > काण्ड 2 > सूक्त 33

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  • अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 33/ मन्त्र 1
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - यक्षविबर्हणम्,(पृथक्करणम्) चन्द्रमाः, आयुष्यम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - यक्षविबर्हण

    अ॒क्षीभ्यां॑ ते॒ नासि॑काभ्यां॒ कर्णा॑भ्यां॒ छुबु॑का॒दधि॑। यक्ष्मं॑ शीर्ष॒ण्यं॑ म॒स्तिष्का॑ज्जि॒ह्वाया॒ वि वृ॑हामि ते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒क्षीभ्या॑म् । ते॒ । नासि॑काभ्याम् । कर्णा॑भ्याम् । छुबु॑कात् । अधि॑ । यक्ष्म॑म् । शी॒र्ष॒ण्य॑म् । म॒स्तिष्का॑त् । जि॒ह्वाया॑: । वि । वृ॒हा॒मि॒ । ते॒ ॥३३.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अक्षीभ्यां ते नासिकाभ्यां कर्णाभ्यां छुबुकादधि। यक्ष्मं शीर्षण्यं मस्तिष्काज्जिह्वाया वि वृहामि ते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अक्षीभ्याम् । ते । नासिकाभ्याम् । कर्णाभ्याम् । छुबुकात् । अधि । यक्ष्मम् । शीर्षण्यम् । मस्तिष्कात् । जिह्वाया: । वि । वृहामि । ते ॥३३.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 33; मन्त्र » 1

    पदार्थ -

    १. यक्ष्म [रोग] से आक्रान्त पुरुष से ब्रह्मा [जानी वैद्य] कहता है कि (ते) = तैरे (अक्षीभ्याम्) = आँखों से (यक्ष्मम्) = रोग को (विवहामि) = [उद्धरामि] पृथक् करता हूँ। इसीप्रकार (नासिकाभ्याम्) = घ्राणेन्द्रिय के अधिष्ठानभूत नासादि छिद्रों से (कर्णाभ्याम्) = श्रोत्रों से (छुबुकात् अधि) = ओष्ठ के अधर प्रदेश [ठोडी] से तेरे रोगों को पृथक् करता हूँ। २. (शीर्षण्यं यक्ष्मम्) = सिर में होनेवाले रोगों को दूर करता हूँ। (मस्तिष्कात्) = शिरःप्रदेश के अन्तर्भाग में स्थित मांसविशेष मस्तिष्क है-उससे और जिह्वाया:-रसना से तेरै रोग को उखाड़ फेंकता हूँ।

    भावार्थ -

    आँख, नासिका, कान, ठोडी, सिर, मस्तिष्क व जिह्वा से रोग को दूर किया जाए।

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