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अथर्ववेद > काण्ड 2 > सूक्त 34

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  • अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 34/ मन्त्र 4
    सूक्त - अथर्वा देवता - वायुः, प्रजापतिः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - पशुगण सूक्त

    ये ग्रा॒म्याः प॒शवो॑ वि॒श्वरू॑पा॒ विरू॑पाः॒ सन्तो॑ बहु॒धैक॑रूपाः। वा॒युष्टानग्रे॒ प्र मु॑मोक्तु दे॒वः प्र॒जाप॑तिः प्र॒जया॑ संररा॒णः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । ग्रा॒म्या: । प॒शव॑: । वि॒श्वऽरू॑पा: । विऽरू॑पा: । सन्त॑: । ब॒हु॒ऽधा । एक॑ऽरूपा: । वा॒यु: । तान् । अग्रे॑ । प्र । मु॒मो॒क्तु॒ । दे॒व: । प्र॒जाऽप॑ति: । प्र॒ऽजया॑ । स॒म्ऽर॒रा॒ण: ॥३४.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये ग्राम्याः पशवो विश्वरूपा विरूपाः सन्तो बहुधैकरूपाः। वायुष्टानग्रे प्र मुमोक्तु देवः प्रजापतिः प्रजया संरराणः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये । ग्राम्या: । पशव: । विश्वऽरूपा: । विऽरूपा: । सन्त: । बहुऽधा । एकऽरूपा: । वायु: । तान् । अग्रे । प्र । मुमोक्तु । देव: । प्रजाऽपति: । प्रऽजया । सम्ऽरराण: ॥३४.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 34; मन्त्र » 4

    पदार्थ -

    १. (वायु:) = गति के द्वारा सब अशुभों का हिंसन करनेवाला [वा गतिगन्धनयोः] (देवः) = प्रकाशमय प्रभु (तान्) = उन्हें (अग्रे प्रमुमोक्तु) = सर्वप्रथम मुक्ता करता है, (ये) = जो (ग्राम्या:) = केवल स्वार्थमय जीवन न बिताकर सम्पूर्ण ग्राम के हित के लिए प्रवृत्त होते हैं [ग्रामाय हिताः] (पशव:) = [पश्यन्ति] देखकर चलते हैं तथा (विश्वरूपा:) = उस सर्वत्र प्रविष्ट प्रभु का निरूपण करनेवाले हैं, जो (बहुधा विरूपा: सन्त:) = बहुत प्रकार से, भिन्न-भिन्न रूपोंवाले होते हुए भी एकरूपाः उद्देश्य की दृष्टि से एक रूप होते हैं-समान उद्देश्य से विविध कार्यों में प्रवृत्त होते हैं-प्रभु इन्हें मुक्त करते हैं। २. ये प्रभु ही वस्तुतः (प्रजापतिः) = सब प्रजाओं के रक्षक है, (प्रजया संरराण:) = सब प्रजाओं के साथ रमण करनेवाले हैं। -

    भावार्थ -

    हम स्वार्थ से ऊपर उठकर मिलकर चलें-यही मोक्ष-प्राप्ति का मार्ग है।

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