अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 12/ मन्त्र 1
उदु॒ ब्रह्मा॑ण्यैरत श्रव॒स्येन्द्रं॑ सम॒र्ये म॑हया वसिष्ठ। आ यो विश्वा॑नि॒ शव॑सा त॒तानो॑पश्रो॒ता म॒ ईव॑तो॒ वचां॑सि ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । ऊं॒ इति॑ ब्रह्मा॑णि । ऐ॒र॒त॒ । श्र॒व॒स्या । इन्द्र॑म् । स॒म॒र्ये । म॒ह॒य॒ । व॒सि॒ष्ठ॒ ॥ आ । य: । विश्वा॑नि । शव॑सा । त॒तान॑ । उ॒प॒ऽश्रो॒ता । मे॒ । ईव॑त: । वचां॑सि ॥१२.१॥
स्वर रहित मन्त्र
उदु ब्रह्माण्यैरत श्रवस्येन्द्रं समर्ये महया वसिष्ठ। आ यो विश्वानि शवसा ततानोपश्रोता म ईवतो वचांसि ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । ऊं इति ब्रह्माणि । ऐरत । श्रवस्या । इन्द्रम् । समर्ये । महय । वसिष्ठ ॥ आ । य: । विश्वानि । शवसा । ततान । उपऽश्रोता । मे । ईवत: । वचांसि ॥१२.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 12; मन्त्र » 1
विषय - प्रभु-स्तवन व ज्ञान-वृद्धि
पदार्थ -
१. हे उपासको! तुम (श्रवस्या) = ज्ञान-प्राप्ति की इच्छा से (ब्रह्माणि) = स्तुतिमन्त्रों का-स्तोत्रों का (उ) = निश्चय से (उत् ऐरत) = उच्चारण करो। हे (वसिष्ठ) = अपने जीवन को उत्तम बनानेवाले यजमान! तू (समर्ये) = [मर्या-मर्यादा]-मर्यादायुक्त यज्ञों में, सभाओं में [सह मर्या यत्र] (इन्द्रम्) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु को (महय) = पूज, समाजों में व्यक्तिपूजन न होकर केवल प्रभु पूजन होगा तो मनुष्यों का परस्पर विरोध न होकर प्रेम बढ़ेगा। व्यक्तिपूजा से भेदभाव बढ़ता है। २. (यः) = जो इन्द्र (शवसा) = बल के द्वारा विश्वानि सब भूतों को (आततान) = विस्तृत करते हैं, वह इन्द्र (ईवतः) = [गच्छतः] क्रियाशील-यज्ञ आदि उत्तम कर्मों में लगे हुए (मे) = मेरे (वचांसि) = स्तुतिरूप वाक्यों को (उपश्रोता) = समीपता से सुननेवाले होते हैं। प्रभु अकर्मण्य की बात को तो सुनते ही नहीं। 'पूर्ण पुरुषार्थ' के उपरान्त ही तो प्रार्थना ठीक है। ये स्तुतिवचन ही वस्तुतः मुझे पवित्र और ज्ञान-प्राप्ति के योग्य बनाते हैं।
भावार्थ - मैं प्रभु का स्तवन करूँ, जीवन-यज्ञ में प्रभु का पूजन करूँ। प्रभु मुझे बल देंगे और मेरे ज्ञान की वृद्धि करनेवाले होंगे।
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