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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 12

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 12/ मन्त्र 3
    सूक्त - वसिष्ठः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-१२

    यु॒जे रथं॑ ग॒वेष॑णं॒ हरि॑भ्या॒मुप॒ ब्रह्मा॑णि जुजुषा॒णम॑स्थुः। वि बा॑धिष्ट॒ स्य रोद॑सी महि॒त्वेन्द्रो॑ वृ॒त्राण्य॑प्र॒ती ज॑घ॒न्वान् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यु॒जे । रथ॑म् । गो॒ऽएष॑णम् । हरिऽभ्याम् । उप॑ । ब्रह्मा॑णि । जु॒जु॒षा॒णम् । अ॒स्थु॒: ॥ वि । बाधि॒ष्ट॒ । स्य:। रोदसी॑ इति॑ । ‍म॒हि॒ऽत्वा । इन्द्र॑: । वृ॒त्राणि॑ । अ॒प्र॒त‍ि । ज॒घ॒न्वान् ॥१२.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    युजे रथं गवेषणं हरिभ्यामुप ब्रह्माणि जुजुषाणमस्थुः। वि बाधिष्ट स्य रोदसी महित्वेन्द्रो वृत्राण्यप्रती जघन्वान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    युजे । रथम् । गोऽएषणम् । हरिऽभ्याम् । उप । ब्रह्माणि । जुजुषाणम् । अस्थु: ॥ वि । बाधिष्ट । स्य:। रोदसी इति । ‍महिऽत्वा । इन्द्र: । वृत्राणि । अप्रत‍ि । जघन्वान् ॥१२.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 12; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    १. मैं गवेषणम्-ज्ञान की वाणियों को प्राप्त करानेवाले रथम्-इस शरीर-रथ को हरिभ्याम् इन्द्रियाश्वों से युजे-युक्त करता हूँ। इन्द्रियों को विषयों में भटकने से रोककर मैं उन्हें संयत करता हूँ। ये संयत इन्द्रियाँ ज्ञानवृद्धि का साधन बनती हैं। (जुजुषाणमस्थुः) = सबसे सेव्यमान उस प्रभु को (ब्रह्माणि) = मेरे द्वारा उच्चरित स्तोत्र (उपस्थुः) = उपस्थित होते हैं। मैं स्तोत्रों द्वारा प्रभु का उपासन करता हूँ। (स्यः इन्द्रः) = वे सर्वशक्तिमान् प्रभु (महित्वा) = अपनी महिमा से (रोदसी) = द्यावापृथिवी को (विबाधिष्ट) = आक्रान्त करते हुए अपने-अपने स्थान में थामते [रोकते] हैं। सारे संसार को वे प्रभु नियन्त्रित करते हैं और (वृत्राणि) = ज्ञान को आवृत करनेवाले काम आदि शत्रुओं को (अप्रती जघन्वान्) = [न विद्यते पुनः प्राप्तिः प्रतिगति यस्मिन्] इसप्रकार नष्ट करते हैं कि वे फिर लौट ही न सकें। चेतन जगत् में भी उपासकों के शत्रुओं का नाश प्रभु ही करते हैं।

    भावार्थ - मैं इन्द्रियों को संयत करके ज्ञान-प्रासि में लगाता हूँ, प्रभु के स्तोत्रों का उच्चारण करता हूँ। प्रभु ही धुलोक व पृथिवीलोक को थामते हैं और उपासकों के वासनारूप शत्रुओं का विनाश करते हैं।

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