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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 12

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 12/ मन्त्र 2
    सूक्त - वसिष्ठः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-१२

    अया॑मि॒ घोष॑ इन्द्र दे॒वजा॑मिरिर॒ज्यन्त॒ यच्छु॒रुधो॒ विवा॑चि। न॒हि स्वमायु॑श्चिकि॒ते जने॑षु॒ तानीदंहां॒स्यति॑ पर्ष्य॒स्मान् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अया॑मि । घोष॑: । इ॒न्द्र॒ । दे॒वऽजा॑भि: । इ॒र॒ज्यन्त॑ । यत् । शु॒रुध॑: । विऽवा॑चि ॥ न॒हि । स्वम् । आयु॑: । चि॒कि॒ते । जने॑षु । तानि॑ । इत् । अंहा॑सि । अति॑ । प॒र्षि॒ । अ॒स्मान् ॥१२.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयामि घोष इन्द्र देवजामिरिरज्यन्त यच्छुरुधो विवाचि। नहि स्वमायुश्चिकिते जनेषु तानीदंहांस्यति पर्ष्यस्मान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अयामि । घोष: । इन्द्र । देवऽजाभि: । इरज्यन्त । यत् । शुरुध: । विऽवाचि ॥ नहि । स्वम् । आयु: । चिकिते । जनेषु । तानि । इत् । अंहासि । अति । पर्षि । अस्मान् ॥१२.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 12; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    १. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! (यत्) = जब (देवजामि:) = दिव्य गुण हैं बन्धु जिसके, अर्थात् जो दिव्यगुणों को जन्म देनेवाला है, वह (घोषः) = स्तोत्र-स्तुतिवचन (अयामि) = [अकारि] हमसे नियमितरूप से किया गया है तब इस (विवाचि) = विशिष्ट स्तुति-बाणीवाले यजमान में (शुरुधः) = [शुचं रुन्धन्ति] शोक-निवर्तक व स्वर्गफलक तत्व (इरज्यन्त) = परस्पर स्पर्धावाले होते हैं। एक-से-एक बढ़कर ये तत्त्व उसके शोक को रोकते हैं और सुख को बढ़ाते हैं। २. हे प्रभो! (जनेषु) = लोगों में (स्वमायुः) = अपनी आयु (नहि चिकिते) = नहीं जानी जाती। पता नहीं कब अन्त आ जाए, अत: आप शीघ्र ही (अस्मान्) = हमें (तानि अंहांसि) = उन आयुष्य की अल्पता के कारणभूत पापों से (इत्) = निश्चयपूर्वक (अतिपर्षि) = लंघाकर पालित कीजिए।

    भावार्थ - प्रभु-स्तवन दिव्यगुणों का वर्धक है। हम नियम से प्रभु-स्तवन करनेवाले बनें। यह स्तवन शोकरोधक तत्त्वों को बढ़ाएगा और प्रभु हमें पापों से पार ले-जाएँगे।

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