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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 125

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 125/ मन्त्र 2
    सूक्त - सुर्कीतिः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-१२५

    कु॒विद॒ङ्ग यव॑मन्तो॒ यवं॑ चि॒द्यथा॒ दान्त्य॑नुपू॒र्वं वि॒यूय॑। इ॒हेहै॑षां कृणुहि॒ भोज॑नानि॒ ये ब॒र्हिषो॒ नमो॑वृक्तिं॒ न ज॒ग्मुः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कु॒वित् । अ॒ङ्ग । यव॑ऽमन्त: । यव॑म् । चि॒त् । यथा॑ । दान्ति॑ । अ॒नु॒ऽपू॒र्वम् । वि॒ऽयूथ॑ ॥ इ॒हऽइ॑ह । ए॒षा॒म् । कृ॒णु॒हि॒ । भोज॑नानि । ये । ब॒र्हिष॑: । नम॑:ऽवृक्तिम् । न । ज॒ग्मु: ॥१२५.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कुविदङ्ग यवमन्तो यवं चिद्यथा दान्त्यनुपूर्वं वियूय। इहेहैषां कृणुहि भोजनानि ये बर्हिषो नमोवृक्तिं न जग्मुः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कुवित् । अङ्ग । यवऽमन्त: । यवम् । चित् । यथा । दान्ति । अनुऽपूर्वम् । विऽयूथ ॥ इहऽइह । एषाम् । कृणुहि । भोजनानि । ये । बर्हिष: । नम:ऽवृक्तिम् । न । जग्मु: ॥१२५.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 125; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    १. हे (अङ्ग) = प्रिय! (यथा) = जैसे (यवमन्तः) = जौ-वाले-जौ की कृषि करनेवाले (चित्) = निश्चय से (यवम्) = जी को (पूर्वम्) = क्रमश: (वियूय) = पृथक्-पृथक् करके (कुवित्) = खूब ही (दान्ति) = काट डालते हैं। इसी प्रकार (ये) = जो व्यक्ति अपने हृदय-क्षेत्र से वासनाओं को उखाड़ डालते हैं और वासनाशून्य (बर्हिषः) = जिसमें से वासनाओं का उद्बहण कर दिया गया है, उस हृदय में (नमःवृक्तिम्) = नमस्कार के वर्जन को (न जग्मुः) = नहीं प्राप्त होते हैं, अर्थात् जो अपने हृदयों को वासनाशून्य बनाते हैं और उन हृदयों में सदा प्रभु के प्रति नमन की भावना को धारण करते हैं, (एषाम्) = इनके (इह इह) = इस-इस स्थान पर, अर्थात् जब-जब आवश्यकता पड़े (भोजननानि) = पालन के साधनभूत भोग्य पदार्थों को प्राप्त कराइए। २. मनुष्य का कर्तव्य यह है कि एक-एक करके वासनाओं को विनष्ट करनेवाला हो। वासनाशून्य हृदय में प्रभु को नमन करे। प्रभु इसको योगक्षेम प्राप्त कराते ही हैं।

    भावार्थ - मनुष्य वासनाओं का उद्बर्हण करके वासनाशून्य हृदय में प्रभु के प्रति नमनवाला होता है तो प्रभु उसके योगक्षेम की स्वयं व्यवस्था करते हैं।

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