अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 125/ मन्त्र 4
सूक्त - सुर्कीतिः
देवता - अश्विनीकुमारौ
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - सूक्त-१२५
यु॒वं सु॒राम॑मश्विना॒ नमु॑चावासु॒रे सचा॑। वि॑पिपा॒ना शु॑भस्पती॒ इन्द्रं॒ कर्म॑स्वावतम् ॥
स्वर सहित पद पाठयु॒वम् । सु॒राम॑म् । अ॒श्वि॒ना॒ । नमु॑चौ । आ॒सु॒रे । सचा॑ ॥ वि॒ऽपि॒पा॒ना । शु॒भ॒: । प॒ती॒ इति॑ । इन्द्र॑म् । कर्म॑ऽसु । आ॒व॒त॒म् ॥१२५.४॥
स्वर रहित मन्त्र
युवं सुराममश्विना नमुचावासुरे सचा। विपिपाना शुभस्पती इन्द्रं कर्मस्वावतम् ॥
स्वर रहित पद पाठयुवम् । सुरामम् । अश्विना । नमुचौ । आसुरे । सचा ॥ विऽपिपाना । शुभ: । पती इति । इन्द्रम् । कर्मऽसु । आवतम् ॥१२५.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 125; मन्त्र » 4
विषय - सरामं विपिपाना
पदार्थ -
१. 'अश्विना' शरीर में प्राणापान हैं। इनकी साधना से शरीर में सोमशक्ति [वीर्य] की ऊर्ध्वगति होती है। इस सोमशक्ति को प्रस्तुत मन्त्र में 'सुरामम्' कहा गया है। इसके द्वारा जीव उत्तम रमणवाला होता है 'सुष्टु रमते अनेन । सोम-रक्षण होने पर ही सब आनन्द-निर्भर हैं। इसी से मनुष्य सौम्य स्वभाव का बनता है और अन्ततः प्रभु को पानेवाला होता है। २. हे (अश्विना) = प्राणापानो! (युवम्) = आप (सुरामम्) = उत्तम रमण के साधनभूत सोम का (विपिपाना) = विशेषरूप से पान करते हुए, (शुभस्पती) = सब कर्मों के रक्षक होते हो, (सचा) = परस्पर मिलकर-प्राण-अपान से मिलकर (आसुरे) = असुरों के अधिपति (नमुचौ) = [न मुचि]-अत्यन्त कठिनता से पीछा छोड़नेवाले इस अहंकार का हनन करनेवाले होते हो। प्राणसाधना से सब मलों का क्षय होते-होते इस आसुर अहंकारवृत्ति का भी ध्वंस हो जाता है। ३. इस आसुरवृत्ति का संहार करके आप (इन्द्रम्) = इस जितेन्द्रिय पुरुष को (कर्मसु) = कर्मों में (आवतम्) = रक्षित करते हो। कर्मों में लगा रहकर यह साधक वासनाओं की ओर नहीं झुकता और पवित्र बना रहकर प्रभु को पानेवाला होता है।
भावार्थ - प्राणसाधना से सोम का रक्षण होकर मनुष्य निरहंकार होता है। कर्मशील बना रहकर पवित्र बना रहता है और प्रभु को प्राप्त करता है।
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