अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 125/ मन्त्र 7
स सु॒त्रामा॒ स्ववाँ॒ इन्द्रो॑ अ॒स्मदा॒राच्चि॒द्द्वेषः॑ सनु॒तर्यु॑योतु। तस्य॑ व॒यं सु॑म॒तौ य॒ज्ञिय॒स्यापि॑ भ॒द्रे सौ॑मन॒से स्या॑म ॥
स्वर सहित पद पाठस: । सु॒ऽत्रामा॑ । स्वऽवा॑न् । इन्द्र॑: । अ॒स्मत् । आ॒रात् । चि॒त् । द्वेष॑: । स॒नु॒त: । यु॒यो॒तु॒ ॥ तस्य॑ । व॒यम् । सु॒ऽम॒तौ । य॒ज्ञिय॑स्य । अपि॑ । भ॒द्रे । सौ॒म॒न॒से । स्या॒म॒ ॥१२५.७॥
स्वर रहित मन्त्र
स सुत्रामा स्ववाँ इन्द्रो अस्मदाराच्चिद्द्वेषः सनुतर्युयोतु। तस्य वयं सुमतौ यज्ञियस्यापि भद्रे सौमनसे स्याम ॥
स्वर रहित पद पाठस: । सुऽत्रामा । स्वऽवान् । इन्द्र: । अस्मत् । आरात् । चित् । द्वेष: । सनुत: । युयोतु ॥ तस्य । वयम् । सुऽमतौ । यज्ञियस्य । अपि । भद्रे । सौमनसे । स्याम ॥१२५.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 125; मन्त्र » 7
विषय - सुमति सौमनस
पदार्थ -
१. (सः) = वह (सुत्रामा) = उत्तम त्राण करनेवाला (स्वावान्) = आत्मिक शक्ति से सम्पन्न (इन्द्रः) = शत्रुविद्रावक प्रभु (अस्मत्) = हमसे (द्वेषः) = द्वेष को (आरात् चित्) = निश्चय से बहुत दूर प्रवाहित करके (युयोतु) = पृथक् कर दे। 'यह द्वेष हमारे समीप फिर न आसके' इस रूप में प्रभु इसे हमसे दूर करें। २. (तस्य यज्ञियस्य) = उस यज्ञिय-पूज्य प्रभु की (समतौ) = कल्याणी मति में (वयम् स्याम) = हम हों (अपि) = और (भद्रे सौमनसे) = उस उत्तम मन में स्थित हों जो सबका भद्र व कल्याण ही सोचता है।
भावार्थ - प्रभु-कृपा से हमें सुमति व सौमनस प्राप्त हो। द्वेष हमसे दूर हो। 'सुमति व सौमनस' को प्रास करनेवाला यह व्यक्ति 'वृषाकपि' बनता है-शक्तिशाली व वासनाओं को कम्पित करके दूर करनेवाला। यह 'इन्द्र' परमैश्वर्यशाली प्रभु का उपासक होने से 'इन्द्र' कहलाता है। 'इन्द्राणी' प्रकृति प्रभु का सामर्थ्य है। उस प्रकृति की ओर झुकनेवाली ऋषिका भी 'इन्द्राणी' है। ये ही अगले सूक्त के द्रष्टा है -
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