Loading...
अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 130

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 130/ मन्त्र 12
    सूक्त - देवता - प्रजापतिः छन्दः - प्राजापत्या गायत्री सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त

    प्रदुद्रु॑दो॒ मघा॑प्रति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्रदुद्रु॑द॒: । मघा॑प्रति ॥१३०.१२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रदुद्रुदो मघाप्रति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रदुद्रुद: । मघाप्रति ॥१३०.१२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 130; मन्त्र » 12

    पदार्थ -
    १. गतमन्त्र में वर्णित सोमरक्षक पुरुष के जीवन में (एनः चिपङ्क्तिका) = [चि चयने, पचि विस्तारे] पाप का चयन [बीनना] करके परे फेंकने का विस्तार होता है। यह हृदयक्षेत्र में से अशुभ वृत्तियों को चुन-चुनकर बाहर फेंक देता है और (हविः) = सदा दानपूर्वक अदन को अपनाता है[हु दानादनयोः]। यह सदा यज्ञशेष का खानेवाला बनता है। २. इसी हवि का परिणाम होता है कि यह (मघा प्रति) = ऐश्वर्यों की ओर (प्रदः) = प्रकृष्ट गतिबाला व उन ऐश्वयों को दान में देनेवाला होता है। यह न्याय्य मार्गों से धनों का खूब ही अर्जन करता है और उन धनों का यज्ञों में विनियोग करके यज्ञशेष को ही खानेवाला बनता है।

    भावार्थ - सोम का रक्षण करनेवाला व्यक्ति [१] अपने हृदयक्षेत्र से वासनाओं के घास फूस को चुन-चुनकर निकाल फेंकता है। [२] सदा दानपूर्वक अदन [भक्षण] करता है। ३. ऐश्वर्यों के प्रति न्याय्य-मार्ग से गतिवाला व उन ऐश्वर्यों का दान देनेवाला होता है।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top