अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 130/ मन्त्र 18
अथो॑ इ॒यन्निति॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअथो॑ । इ॒यन् । इति॑ ॥१३०.१८॥
स्वर रहित मन्त्र
अथो इयन्निति ॥
स्वर रहित पद पाठअथो । इयन् । इति ॥१३०.१८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 130; मन्त्र » 18
विषय - क्रियाशील और क्रियाशील
पदार्थ -
१. गतमन्त्र के अनुसार चाहे मनुष्य को धन का उपभोग नहीं करना, (अथ उ) = तो भी [Even then] वह (इति) = निश्चय से (इयन्) = चलता हुआ हो और (इयन्) = चलता हुआ ही हो। गतिशीलता आवश्यक है। २. (अथ उ) = और अब (इयन् इति) = चलता हुआ ही हो। गतिशील पुरुष ही पवित्र जीवनवाला बनता है। संसार में इस गतिशील पुरुष को ही ऐश्वर्य प्राप्त होता है। इस ऐश्वर्य का विनियोग इसने यज्ञों में करना है। ।
भावार्थ - धन का उपभोग न करने की अवस्था में भी धनार्जन का प्रयत्न आवश्यक है इन प्रयत्नार्जित धनों से ही तो यज्ञ आदि उत्तम कर्म सिद्ध होंगे।
इस भाष्य को एडिट करें