अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 130/ मन्त्र 1
को अ॑र्य बहु॒लिमा॒ इषू॑नि ॥
स्वर सहित पद पाठक: । अ॒र्य॒ । बहु॒लिमा॒ । इषू॑नि: ॥१३०.१॥
स्वर रहित मन्त्र
को अर्य बहुलिमा इषूनि ॥
स्वर रहित पद पाठक: । अर्य । बहुलिमा । इषूनि: ॥१३०.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 130; मन्त्र » 1
विषय - सोम-यज्ञ
पदार्थ -
१.(क:) = कौन (बहुलिमा) = शक्तियों के बाहुल्यवाले (इषूनि) = सोमयज्ञों को-शरीर में ही प्रतिदिन सोम [वीर्य] की आहुति देनेरूप यज्ञों को (अर्य) = [ऋगतौ] प्राप्त होता है। शक्तियों के बाहुल्य को प्राप्त करानेवाले इन सोमयज्ञों का करनेवाला यह ब्रह्मचारी ही तो होता है। सोम-रक्षण द्वारा यह अपने में शक्ति का संचय करता है। २. (असिद्याः) = [अविद्यमाना सिति: बन्धनं यस्याः]-गृहस्थ में रहते हुए भी विषयों में अनासक्तवृत्ति का (पय:) = [semen virile] (वीर्यक:) = कौन-सा होता है। गृहस्थ में होते हुए भी जो विषय-विलास के जीवनवाला नहीं बन जाता, वह सु-वीर्य बनता ही है। ३. (अर्जुन्या:) = [अर्जुन श्वेत] राग-द्वेष से अनाक्रान्त शुद्ध [श्वेत] चित्तवृत्तिवाले का (पय:) = वीर्य (क:) = कौन-सा होता है? गृहस्थ के कार्यों को समाप्त करके मनुष्य वानप्रस्थ बनता है। इस वानप्रस्थ में राग-द्वेष से ऊपर उठने पर शरीर में वीर्य शुद्ध [उबाल से रहित] बना रहता है। [४] वानप्रस्थ से ऊपर उठकर मनुष्य संन्यस्त होता है। इस संन्यास में 'काणी' वृत्ति को अपनाता है। इधर-उधर भटकनेवाली इन्द्रियों व मन को यह अन्तर्मुखी करने का प्रयत्न करता है उन्हें अपनी ओर आकृष्ट करता है। इस कार्या:-काणी वृत्ति का पयः-वीर्य का कौन-सा है? संन्यस्त होकर-सब इन्द्रियों को अपने अन्दर आकृष्ट करके यह वीर्य को सुरक्षित करनेवाला होता है।
भावार्थ - ब्रह्मचर्य तो है ही सोमयज्ञ। इस आश्रम में सोम [वीर्य] को शरीर में सरक्षित रखना होता है। गृहस्थ में भी हम विषयों से बद्ध न हो जाएँ। वानप्रस्थ में अत्यन्त शुद्धवृत्ति [अर्जुनी]-वाले बनें। संन्यास में इन्द्रियों व मन को अपने अन्दर आकृष्ट करनेवाले बनें। इसप्रकार हम आजीवन सोमयज्ञ करनेवाले हों।
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