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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 130

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 130/ मन्त्र 14
    सूक्त - देवता - प्रजापतिः छन्दः - प्राजापत्या गायत्री सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त

    मा त्वा॑भि॒ सखा॑ नो विदन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मा । त्वा । अ॑भि॒ । सखा॑ । न: । विदन् ॥१३०.१४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मा त्वाभि सखा नो विदन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मा । त्वा । अभि । सखा । न: । विदन् ॥१३०.१४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 130; मन्त्र » 14

    पदार्थ -
    १. गतमन्त्र के अनुसार ऐश्वर्यों को कमाने पर यदि एक व्यक्ति दान नहीं देता तो धीमे धीमे उसमें धन का अभिमान आ जाता है। धन को वह प्रभु का दिया हुआ न समझकर 'इद मद्य मया लब्ध, इमं प्राप्स्ये मनोरथम् अपना समझने लगता है और उसे अभिमान हो जाता है। उसके मानों सींग-से निकल आते हैं २. मन्त्र में कहते हैं कि हे उत्पन्न (शृंग) = पैदा हुए हुए सींग! (न: सखा) = हम सबका मित्र वह प्रभु त्वा अभि-तेरी ओर मा विदन् [विदत्]-मत प्राप्त हो। जहाँ धनाभिमान है, वहाँ प्रभु का वास कहाँ? अभिमानी को प्रभु की प्राप्ति नहीं होती। वह तो अपने को ही ईश्वर मानने लगता है 'ईश्वरोऽहम् ।

    भावार्थ - धन का त्याग न होने पर धन का अभिमान उत्पन्न हो जाता है और इस अभिमानी को कभी प्रभु की प्राप्ति नहीं होती।

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