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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 133

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 133/ मन्त्र 1
    सूक्त - देवता - कुमारी छन्दः - निचृदनुष्टुप् सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त

    वित॑तौ किरणौ॒ द्वौ तावा॑ पिनष्टि॒ पूरु॑षः। न वै॑ कुमारि॒ तत्तथा॒ यथा॑ कुमारि॒ मन्य॑से ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वित॑तौ । किरणौ॒ । द्वौ । तौ । आ॑ । पिनष्टि॒ । पूरु॑ष: ॥ न । वै । कु॒मारि॒ । तत् । तथा॒ । यथा॑ । कुमारि॒ । मन्य॑से ॥१३३.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विततौ किरणौ द्वौ तावा पिनष्टि पूरुषः। न वै कुमारि तत्तथा यथा कुमारि मन्यसे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विततौ । किरणौ । द्वौ । तौ । आ । पिनष्टि । पूरुष: ॥ न । वै । कुमारि । तत् । तथा । यथा । कुमारि । मन्यसे ॥१३३.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 133; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    १. प्रभु से दिये गये वेदज्ञान में (द्वौ किरणौ) = दो प्रकाश की किरणें (विततौ) = विस्तृत हैं। वेद में जहाँ प्रकृति का सम्यक ज्ञान दिया गया है, उसी प्रकार जीव के कर्तव्यों का प्रतिपादन भी पूर्णतया हुआ है। जीव का वहाँ अन्तिम लक्ष्य उपासना द्वारा प्रभु का सान्निध्य कहा गया है। 'तदपश्यत् तदभवत् तदासीत्' इन शब्दों में यह स्पष्ट है कि जीव ने प्रभु-दर्शन करना है-प्रभु जैसा बनना है-प्रभु-पुत्र होने के नाते प्रभु-जैसा तो था ही। बालबुद्धिवश प्रकृति का आकर्षण ही उसे विषयपंक में फंसाकर मलिन कर देता है। (पूरुषः) = इस शरीर-नगरी में बद्ध होकर रहनेवाला जीव (तौ) = उन प्रकाश-किरणों को (आपिनष्टि) = पीस डालता है। इन प्रकाश-किरणों से अपने जीवन को दीप्त नहीं करता। विषयों में ही क्रीड़ा करता रहता है। २. वह जीव विषयों को बड़ा प्रिय समझता है, परन्तु वस्तुतः ये वैसे हैं तो नहीं, अतः कहते हैं कि हे (कुमारि) = [कुमार क्रीडायाम्] विषयों में क्रीड़ा करनेवाली युवति | (वै) = निश्चय से (तत्) = वह विषयस्वरूप तथा (न) = वैसा नहीं है। हे कुमारि! (यथा मन्यसे) = जैसा तू इसे समझ रही है। जीव इसमें आनन्द-लाभ की आशा करता है, परन्तु ये विषय तो 'सर्वेन्द्रियाणां जरयन्ति तेजः' सब इन्द्रियों के तेज को जीर्ण ही करनेवाले होते हैं।

    भावार्थ - प्रभु ने वेद में हमारे लिए प्रकृतिज्ञान व जीव-कर्त्तव्यज्ञानरूपी दो प्रकाश की किरणों को प्राप्त कराया है। प्रकृति में फंसकर हम इन ज्ञान-किरणों को प्राप्त करने के लिए यत्नशील नहीं होते, परन्तु प्रकृति वस्तुतः आनन्दप्रद लग ही रही है, है तो नहीं। यह तो इन्द्रियों के तेज को जीर्ण ही करनेवाली है। इस बात को समझकर हमें प्रकाश को ही पाना चाहिए।

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