Loading...
अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 133

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 133/ मन्त्र 3
    सूक्त - देवता - कुमारी छन्दः - निचृदनुष्टुप् सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त

    निगृ॑ह्य॒ कर्ण॑कौ॒ द्वौ निरा॑यच्छसि॒ मध्य॑मे। न वै॑ कुमारि॒ तत्तथा॒ यथा॑ कुमारि॒ मन्य॑से ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    निगृ॑ह्य॒ । कर्ण॑कौ॒ । द्वौ । निरा॑यच्छसि॒ । मध्य॑मे ॥ न । वै । कु॒मारि॒ । तत् । तथा॒ । यथा॑ । कुमारि॒ । मन्य॑से ॥१३३.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    निगृह्य कर्णकौ द्वौ निरायच्छसि मध्यमे। न वै कुमारि तत्तथा यथा कुमारि मन्यसे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    निगृह्य । कर्णकौ । द्वौ । निरायच्छसि । मध्यमे ॥ न । वै । कुमारि । तत् । तथा । यथा । कुमारि । मन्यसे ॥१३३.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 133; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    १. तमोगुण के विक्षेपों के कारण मनुष्य 'प्रमाद-आलस्य व निद्रा' की ओर झुक जाता है। राजस् विक्षेप इसे अर्थप्रधान बनाकर हर समय भगदौड़ में रखते हैं। इन (द्वौ) = दोनों ही (कर्णणौ) = [क विक्षेपे]-विक्षेपों को (निगृहा) = निगृहीत करके-रोककर तमोगुण के आलस्य व रजोगुण की भगदौड़ के (मध्यमे) = मध्य में होनेवाले सात्त्विक गति-सम्पन्न स्वर्णीय मध्यमार्ग में (निरायच्छसि) = तू अपने को संयत करता है। २. हे कुमारि-संसार के विषयों में क्रीड़ा करनेवाले जीव! यह तू समझ ले कि (वै) = निश्चय से (तत्) = वह (तथा न) = वैसे नहीं है, हे कुमारि! (यथा मन्यसे) = जैसे तू इस संसार को मानती है।

    भावार्थ - तमोगुण व रजोगुण के विक्षेपों से ऊपर उठकर हम सदा मध्यम सात्त्विक मार्ग पर चलनेवाले बनें। संसार के तत्त्व को समझें।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top