अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 133/ मन्त्र 4
उ॑त्ता॒नायै॑ शया॒नायै॒ तिष्ठ॑न्ती॒ वाव॑ गूहसि। न वै॑ कुमारि॒ तत्तथा॒ यथा॑ कुमारि॒ मन्य॑से ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒त्ता॒नायै॑ । शया॒नायै॒ । तिष्ठ॑न्ती॒ । वा । अव॑ । गूहसि: ॥ न । वै । कु॒मारि॒ । तत् । तथा॒ । यथा॑ । कुमारि॒ । मन्य॑से ॥१३३.४॥
स्वर रहित मन्त्र
उत्तानायै शयानायै तिष्ठन्ती वाव गूहसि। न वै कुमारि तत्तथा यथा कुमारि मन्यसे ॥
स्वर रहित पद पाठउत्तानायै । शयानायै । तिष्ठन्ती । वा । अव । गूहसि: ॥ न । वै । कुमारि । तत् । तथा । यथा । कुमारि । मन्यसे ॥१३३.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 133; मन्त्र » 4
विषय - उत्ताना Vs शयाना' चित्तवृत्ति
पदार्थ -
१. (उत्तानायै) = [Elevated, Candid] उत्कृष्ट-छल-छिद्र-शून्य चित्तवृत्ति के लिए (तिष्ठन्ती) = स्थित होती हुई तू (वा) = निश्चय से (शयानायै) = आलस्य में शयन करनेवाली चित्तवृत्ति के लिए (अवगूहसि) = अपने को संवृत कर लेती है-छिपा लेती है [Conceal] | शयाना चित्तवृत्ति का तू शिकार नहीं होती। २. हे कुमारि! यह त सदा ध्यान रखना कि (वै) = निश्चय से (तत् तथा न) = यह संसार वैसा नहीं, हे कुमारि! (यथा मन्यसे) = जैसा तू इसे मानती है।
भावार्थ - हम संसार में विलासों की चमक से बचकर उत्कृष्ट व छल-छिद्र-शून्य जीवन को अपनाएँ। आलस्यमयी भोगप्रवण चित्तवृत्ति को दूर रक्खें।
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