अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 133/ मन्त्र 6
अव॑श्लक्ष्ण॒मिव॑ भ्रंशद॒न्तर्लो॑म॒मति॑ ह्र॒दे। न वै॑ कुमारि॒ तत्तथा॒ यथा॑ कुमारि॒ मन्य॑से ॥
स्वर सहित पद पाठअव॑श्लक्ष्ण॒म् । इव । भ्रंशद॒न्तर्लोम॒मति॑ । हृ॒दे ॥ न । वै । कु॒मारि॒ । तत् । तथा॒ । यथा॑ । कुमारि॒ । मन्य॑से ॥१३३.६॥
स्वर रहित मन्त्र
अवश्लक्ष्णमिव भ्रंशदन्तर्लोममति ह्रदे। न वै कुमारि तत्तथा यथा कुमारि मन्यसे ॥
स्वर रहित पद पाठअवश्लक्ष्णम् । इव । भ्रंशदन्तर्लोममति । हृदे ॥ न । वै । कुमारि । तत् । तथा । यथा । कुमारि । मन्यसे ॥१३३.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 133; मन्त्र » 6
विषय - अवश्लक्ष्णम् इव
पदार्थ -
१. यह संसार (अवश्लक्ष्णम् इव) = [not honest] छल-छिद्र से भरा हुआ-सा है-यह सुन्दर नहीं। (लोममति ह्रदे अन्तः) = विषय-शैवालरूपी लोमौवाले हृद के अन्दर (भ्रंशत्) = गिर रहा है, अर्थात् संसार-हृद में मनुष्य डूबते-से चलते हैं। यह संसार-हृद विषय के शैवाल से भरा हुआ है। ये विषय लोम हैं [लू छेदने] छेदन के योग्य हैं। अन्यथा ये मनुष्य को उलझा लेते हैं। २. हे कुमारि। वै-निश्चय से तत् यथा न-यह संसार वैसा नहीं, हे कुमारि! यथा मन्यसे-जैसा तु समझती है। संसार के तत्व को समझकर हमें इस संसार-हद में डूबने से बचना चाहिए |
भावार्थ - यह संसार छल-छिद्र से भरा-सा हुआ है। मनुष्य इसकी चमक से चुधियाई हुई आँखोंवाला होकर विषय-शैवाल से भरे इस संसार-हद में डूब जाता है, अतः अत्यन्त सावधानी अपेक्षित है।
सूचना - छह बार यह बात कही गई है कि यह संसार वैसा नहीं जैसाकि इसे हम समझ रहे हैं। यही संसार का मिथ्यात्व है-यही वेदान्त-सिद्धान्त है। 'संसार न हो' ऐसा नहीं। इसे ठीक रूप में समझकर इस संसार-सागर में डूबने से हमें बचना चाहिए। पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और मन ही इसमें उलझने का कारण बन जाते हैं, अत: यह बात छह बार दुहरा दी गई है। जब बुद्धि का राज्य होता है तब मनुष्य इसमें उलझने से बच जाता है।
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