अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 133/ मन्त्र 5
श्लक्ष्णा॑यां॒ श्लक्ष्णि॑कायां॒ श्लक्ष्ण॑मे॒वाव॑ गूहसि। न वै॑ कुमारि॒ तत्तथा॒ यथा॑ कुमारि॒ मन्य॑से ॥
स्वर सहित पद पाठश्लक्ष्णा॑या॒म् । श्लक्ष्णि॑काया॒म् । श्लक्ष्ण॑म् । ए॒व । अव॑ । गूहसि । न । वै । कु॒मारि॒ । तत् । तथा॒ । यथा॑ । कुमारि॒ । मन्य॑से ॥१३३.५॥
स्वर रहित मन्त्र
श्लक्ष्णायां श्लक्ष्णिकायां श्लक्ष्णमेवाव गूहसि। न वै कुमारि तत्तथा यथा कुमारि मन्यसे ॥
स्वर रहित पद पाठश्लक्ष्णायाम् । श्लक्ष्णिकायाम् । श्लक्ष्णम् । एव । अव । गूहसि । न । वै । कुमारि । तत् । तथा । यथा । कुमारि । मन्यसे ॥१३३.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 133; मन्त्र » 5
विषय - श्लक्ष्णा Vs श्लक्ष्णिका
पदार्थ -
१. दो प्रकार की चित्तवृत्तियाँ हैं-एक 'श्लक्ष्णा' [Honest, candid, Beautiful, charming] छल-छिद्र-शून्य उदार चित्तवृत्ति हैं जो वस्तुतः सुन्दर हैं। दूसरी 'श्लक्ष्णिका' [कुत्सिते-कन्]-श्लक्ष्णा से विपरीत कुत्सित छल-छिद्रपूर्ण चित्तवृत्ति है। हे कुमारि! तू इस बात का ध्यान करना कि (श्लक्ष्णायां श्लक्षिणकायाम्) = इन श्लक्ष्णा और श्लक्ष्णिका चित्तवृत्तियों में तु (श्लक्ष्णाम् एव) = छल-छिद्रशून्य सुन्दर चित्तवृत्ति को ही (अवगूहसि) = [गह-Hug]-आलिंगन करती है। हमें संसार में उत्तम चित्तवृत्ति को ही अपनाना चाहिए। संसार की चमक-दमक में फँसकर कुटिलता की ओर न झुक जाना चाहिए। ३. हे कुमारि! तू यह समझ ले कि (वै) = निश्चय से (तत तथा न) = यह संसार वैसा नहीं है, हे कुमारि! (यथा मन्यसे) = जैसा तु इसको समझ रही है। छल-छिद्र से प्राप्त ऐश्वर्य अन्ततः कल्याण देनेवाले नहीं।
भावार्थ - हम संसार में छल-छिद्र से शून्य, उदार चित्तवृत्तिवाले बनें । संसार के स्वरूप को ठीक से समझने का यत्न करें।
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