अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 17/ मन्त्र 7
आपो॒ न सिन्धु॑म॒भि यत्स॒मक्ष॑र॒न्त्सोमा॑स॒ इन्द्रं॑ कु॒ल्या इ॑व ह्र॒दम्। वर्ध॑न्ति॒ विप्रा॒ महो॑ अस्य॒ साद॑ने॒ यवं॒ न वृ॒ष्टिर्दि॒व्येन॒ दानु॑ना ॥
स्वर सहित पद पाठआप॑: । न । सिन्धु॑म् । अ॒भि । यत् । स॒म्ऽअक्ष॑रन् । सोमा॑स । इन्द्र॑म् । कु॒ल्या:ऽइ॑व । ह्र॒दम् ॥ वर्ध॑न्ति । विप्रा॑: । मह॑: । अ॒स्य॒ । सद॑ने । यव॑म् । न । वृ॒ष्टि: । दि॒व्येन॑ । दानु॑ना ॥१७.७॥
स्वर रहित मन्त्र
आपो न सिन्धुमभि यत्समक्षरन्त्सोमास इन्द्रं कुल्या इव ह्रदम्। वर्धन्ति विप्रा महो अस्य सादने यवं न वृष्टिर्दिव्येन दानुना ॥
स्वर रहित पद पाठआप: । न । सिन्धुम् । अभि । यत् । सम्ऽअक्षरन् । सोमास । इन्द्रम् । कुल्या:ऽइव । ह्रदम् ॥ वर्धन्ति । विप्रा: । मह: । अस्य । सदने । यवम् । न । वृष्टि: । दिव्येन । दानुना ॥१७.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 17; मन्त्र » 7
विषय - घरों में प्रभु-स्तवन
पदार्थ -
१. (यत्) = जब (सोमास:) = सोमकण (इन्द्रम्) = जितेन्द्रिय पुरुष की (अभि समक्षरन्) = ओर गतिवाले होते हैं, उसी प्रकार (न) = जैसेकि (आप:) = जल (सिन्धुम्) = समुद्र की ओर, (इव) = जैसे (कुल्या:) = छोटी छोटी नदियाँ (ह्रदम्) = झील की ओर, उस समय (विप्राः) = ज्ञानी पुरुष (सादने) = उपासनागृहों में अपने घरों में (अस्य) = इस प्रभु के (महः) = माहात्म्य को (वर्धन्ति) = बढ़ाते हैं। २. सोमरक्षक पुरुष प्रभु के माहात्म्य का अपने घरों में इसप्रकार वर्धन करते हैं, (न) = जैसेकि (वृष्टिः) = वर्षा (दिव्येन दानुना) = अन्तरिक्ष से होनेवाले उदकदान के द्वारा (यवम्) = यव [जौ] को बढ़ाती है। यहाँ स्तवन व प्रभु माहात्म्य वर्धन की उपमा वृष्टि द्वारा यव-वर्धन से देकर यह संकेत किया गया है कि 'यव' सात्विक भोजन है। इसका सेवन सोम-रक्षण में भी सहायक होगा और वृत्ति को भी सात्विक बनाएगा हम प्रकृति की ओर न झुककर प्रभु की ओर झुकाववाले बनेंगे।
भावार्थ - भावार्थ - हम यव आदि सात्त्विक भोजनों का सेवन करते हुए प्रभु-स्तवन की वृत्तिवाले बनें और सोम का शरीर में रक्षण कर पायें पाएँ।
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