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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 17

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 17/ मन्त्र 8
    सूक्त - कृष्णः देवता - इन्द्रः छन्दः - जगती सूक्तम् - सूक्त-१७

    वृषा॒ न क्रु॒द्धः प॑तय॒द्रजः॒स्वा यो अ॒र्यप॑त्नी॒रकृ॑णोदि॒मा अ॒पः। स सु॑न्व॒ते म॒घवा॑ जी॒रदा॑न॒वेऽवि॑न्द॒ज्ज्योति॒र्मन॑वे ह॒विष्म॑ते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वृषा॑ । न । क्रु॒ध्द: । प॒त॒य॒त् । रज॑:ऽसु । आ । य: । अ॒र्यऽप॑त्नी: । अकृ॑णोत् । इ॒मा: । अ॒प: ॥ स: । सु॒न्व॒ते । म॒घऽवा॑ । जी॒रदा॑नवे । ‍अवि॑न्दत् । ज्योति॑: । मन॑वे । ह॒विष्म॑ते ॥१७.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वृषा न क्रुद्धः पतयद्रजःस्वा यो अर्यपत्नीरकृणोदिमा अपः। स सुन्वते मघवा जीरदानवेऽविन्दज्ज्योतिर्मनवे हविष्मते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वृषा । न । क्रुध्द: । पतयत् । रज:ऽसु । आ । य: । अर्यऽपत्नी: । अकृणोत् । इमा: । अप: ॥ स: । सुन्वते । मघऽवा । जीरदानवे । ‍अविन्दत् । ज्योति: । मनवे । हविष्मते ॥१७.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 17; मन्त्र » 8

    पदार्थ -
    १. वह (वृषा) = सुखों का सेचन करनेवाला, (न क्रुद्धः) = कभी कुद्ध न होनेवाला प्रभु (रजः सु) = सब लोकों में (आपतयत्) = समन्तात् गति व प्रासिवाले होते हैं। सदा सर्वत्र वर्तमान वे प्रभु सखों का वर्षण करते हैं। (य:) = जिस प्रभु ने (इमाः अप:) = इन रेत:कणरूप जलों को (अर्यपत्नी:) = जितेन्द्रिय [इन्द्रियों के स्वामी] पुरुष की पत्नी के रूप में पालन करनेवाला (अकृणोत्) = किया है। सोमकणों के रक्षण से ये उस रक्षक का रक्षण करनेवाले होते हैं। २. (सः मघवा) = वे ऐश्वर्यशाली प्रभु (सुन्वते) = सोमाभिषव करनेवाले-शरीर में सोम का सम्पादन करनेवाले (जीरदानवे) = क्षिप्रदान पुरुष के लिए, तुरन्त दान करनेवाले पुरुष के लिए (हविष्मते) = यज्ञशील व (मनवे) = विचारशील पुरुष के लिए (ज्योतिः अविन्दत) = ज्योति प्राप्त कराते हैं।

    भावार्थ - सब लोकों में प्रास होते हुए प्रभु सुखों का वर्षण करते हैं। जितेन्द्रिय पुरुष के जीवन में सोमकणरूप जलों को रक्षक के रूप में प्राप्त कराते हैं। इस सोम का सम्पादन करनेवाले, क्षिप्रदानी, यज्ञशील पुरुष के लिए ज्योति देते हैं।

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