अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 17/ मन्त्र 7
आपो॒ न सिन्धु॑म॒भि यत्स॒मक्ष॑र॒न्त्सोमा॑स॒ इन्द्रं॑ कु॒ल्या इ॑व ह्र॒दम्। वर्ध॑न्ति॒ विप्रा॒ महो॑ अस्य॒ साद॑ने॒ यवं॒ न वृ॒ष्टिर्दि॒व्येन॒ दानु॑ना ॥
स्वर सहित पद पाठआप॑: । न । सिन्धु॑म् । अ॒भि । यत् । स॒म्ऽअक्ष॑रन् । सोमा॑स । इन्द्र॑म् । कु॒ल्या:ऽइ॑व । ह्र॒दम् ॥ वर्ध॑न्ति । विप्रा॑: । मह॑: । अ॒स्य॒ । सद॑ने । यव॑म् । न । वृ॒ष्टि: । दि॒व्येन॑ । दानु॑ना ॥१७.७॥
स्वर रहित मन्त्र
आपो न सिन्धुमभि यत्समक्षरन्त्सोमास इन्द्रं कुल्या इव ह्रदम्। वर्धन्ति विप्रा महो अस्य सादने यवं न वृष्टिर्दिव्येन दानुना ॥
स्वर रहित पद पाठआप: । न । सिन्धुम् । अभि । यत् । सम्ऽअक्षरन् । सोमास । इन्द्रम् । कुल्या:ऽइव । ह्रदम् ॥ वर्धन्ति । विप्रा: । मह: । अस्य । सदने । यवम् । न । वृष्टि: । दिव्येन । दानुना ॥१७.७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(न) जैसे (आपः) नदियाँ (सिन्धुम् अभि) समुद्र को और (इव) जैसे (कुल्याः) नाले (ह्रदम्) झील को [मिलकर बह जाते हैं], वैसे ही (यत्) जब (सोमासः) सोम [ऐश्वर्य] (इन्द्रम्) इन्द्र [महाप्रतापी पुरुष] को (समक्षरन्) मिलकर बह आये हैं, [तब] (विप्राः) बुद्धिमान् लोग (अस्य) इस [शूर] की (महः) बड़ाई को (सदने) समाज के बीच (वर्धन्ति) बढ़ाते हैं, (न) जैसे (यवम्) अन्न को (वृष्टिः) बरसा (दिव्येन) दिव्य आकाश से आये (दानुना) जलदान से [बढ़ाती है] ॥७॥
भावार्थ
जो महाप्रतापी राजा सब प्रकार से ऐश्वर्यवान् हो, विद्वान् लोग उसके गुणों की प्रशंसा करके उन्नति करें ॥७॥
टिप्पणी
७−(आपः) जलवत्यो नद्यः (न) यथा (सिन्धुम्) समुद्रम् (अभि) प्रति (यत्) यदा (समक्षरन्) मिलित्वा वहन्ति स्म (सोमासः) ऐश्वर्याणि (इन्द्रम्) महाप्रतापिनं पुरुषम् (कुल्याः) अल्पाः सरितः (इव) (ह्रदम्) जलाशयम् (वर्धन्ति) वर्धयन्ति (विप्राः) मेधाविनः (महः) मह पूजायाम्-असुन्। महत्त्वम् (अस्य) शूरस्य (सदने) समाजे (यवम्) अन्नम् (न) यथा (वृष्टिः) जलवर्षणम् (दिव्येन) दिवि आकाशे भवेन (दानुना) दाभाभ्यां नुः। उ० ३।३२। ददातेः-नु। जलदानेन ॥
विषय
घरों में प्रभु-स्तवन
पदार्थ
१. (यत्) = जब (सोमास:) = सोमकण (इन्द्रम्) = जितेन्द्रिय पुरुष की (अभि समक्षरन्) = ओर गतिवाले होते हैं, उसी प्रकार (न) = जैसेकि (आप:) = जल (सिन्धुम्) = समुद्र की ओर, (इव) = जैसे (कुल्या:) = छोटी छोटी नदियाँ (ह्रदम्) = झील की ओर, उस समय (विप्राः) = ज्ञानी पुरुष (सादने) = उपासनागृहों में अपने घरों में (अस्य) = इस प्रभु के (महः) = माहात्म्य को (वर्धन्ति) = बढ़ाते हैं। २. सोमरक्षक पुरुष प्रभु के माहात्म्य का अपने घरों में इसप्रकार वर्धन करते हैं, (न) = जैसेकि (वृष्टिः) = वर्षा (दिव्येन दानुना) = अन्तरिक्ष से होनेवाले उदकदान के द्वारा (यवम्) = यव [जौ] को बढ़ाती है। यहाँ स्तवन व प्रभु माहात्म्य वर्धन की उपमा वृष्टि द्वारा यव-वर्धन से देकर यह संकेत किया गया है कि 'यव' सात्विक भोजन है। इसका सेवन सोम-रक्षण में भी सहायक होगा और वृत्ति को भी सात्विक बनाएगा हम प्रकृति की ओर न झुककर प्रभु की ओर झुकाववाले बनेंगे।
भावार्थ
भावार्थ - हम यव आदि सात्त्विक भोजनों का सेवन करते हुए प्रभु-स्तवन की वृत्तिवाले बनें और सोम का शरीर में रक्षण कर पायें पाएँ।
भाषार्थ
(आपः) नदियों के जल (न) जैसे (सिन्धुम् अभि) समुद्र की ओर (यत्) जब (समक्षरन्) मिलकर बहते हैं, तथा (कुल्याः) नालियाँ (इव) जैसे (ह्रदम्) तालाब की ओर बहती हैं, वैसे ही (सोमासः) सब भक्तिरस (इन्द्रम्) परमेश्वर की ओर बहते हैं। (सादने) हृदय-सदन में परमेश्वर के स्थित हो जाने पर (विप्राः) मेधावी उपासक (अस्य) इस परमेश्वर की (महः) महिमा को (वर्धन्ति) बढ़ाते हैं। (न) जैसे कि (दिव्येन दानुना) परमेश्वर के दिव्य ज्ञान द्वारा (वृष्टिः) वर्षा (यवम्) जौ आदि को बढ़ाती है।
विषय
परमेश्वरोपासना
भावार्थ
(सिन्धुम् अभि) समुद्र के प्रति (आपः न) जिस प्रकार जलसे भरी नदियां (समक्षरन्) बहती हैं और जिस प्रकार (ह्रदम् इव) बड़े भारी ताल में (कुल्याः इव ) छोटी छोटी जलधाराएं आकर पड़ती हैं। उसी प्रकार (यत्) जब (सोमासः) सौम्य स्वभाव वाले विद्वान् मुमुक्षु जीव (इन्द्रम् अभि सम् अक्षरन्) उस ऐश्वर्यवान् प्रभु परमेश्वर की शरण आते हैं तब वे (विप्राः) विद्वान् जन आनन्द से विशेष रूप से पूर्ण होकर (अस्य) इसके (सादने) शरण में जाकर उसकी ही (महः) कीर्त्ति को (वर्धन्ति) ऐसे बढ़ाते है जैसे (वृष्टिः) वर्षा (दिव्येन दानुना) आकाश से आये जल से (यवं न) जौ को बढ़ाया करती है। राजा के पक्ष में—(सोमासः) विद्वान् लोग (यत् इन्द्रम् समक्षरन्) जब ऐश्वर्यवान् राजा के पास आते हैं तो वे (अस्य सादने महः वर्धन्ति) उसके शरण में आकर यश और महान् सामर्थ्य की वृद्धि करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१-१० कृष्ण ऋषिः। १२ वसिष्ठः। इन्द्रो देवता। १-१० जगत्यः। ११,१२ त्रिष्टुभौ। द्वादशर्चं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Indr a Devata
Meaning
As rivers flow into the sea, as streams of rain flow into the lake, so do the beauties of faith and pleasure in soma yajnas concentrate on Indra, glory of the world. As showers of rain with profuse divine generosity raise the crops of barley and the plants grow up in ecstasy, so in the homely presence of this generous lord of sublimity, saints and sages rise and shine in moral and spiritual grandeur. As rivers flow into the sea, as streams of rain flow into the lake, so do the beauties of faith and pleasure in soma yajnas concentrate on Indra, glory of the world. As showers of rain with profuse divine generosity raise the crops of barley and the plants grow up in ecstasy, so in the homely presence of this generous lord of sublimity, saints and sages rise and shine in moral and spiritual grandeur.
Translation
As waters flow toward the ocean, as the rivulets to the lake so the learned men exalt the power of Almighty God in the place of Yajna, as the rain increases the barley corns by the mosture poured from heaven.
Translation
As waters flow toward the ocean, as the rivulets to the lake so the learned men exalt the power of Almighty God in the place of Yajna, as the rain increases the barley corns by the moisture poured from heaven.
Translation
As the waters flow down to the sea and small streams to a reservoir of water, so do the salvation-seekers approach the most Adorable God and being specially filled with His Bliss, enhance His Glory, under His shelter, just as the rain enhance barley by rain-drops from heaven.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
७−(आपः) जलवत्यो नद्यः (न) यथा (सिन्धुम्) समुद्रम् (अभि) प्रति (यत्) यदा (समक्षरन्) मिलित्वा वहन्ति स्म (सोमासः) ऐश्वर्याणि (इन्द्रम्) महाप्रतापिनं पुरुषम् (कुल्याः) अल्पाः सरितः (इव) (ह्रदम्) जलाशयम् (वर्धन्ति) वर्धयन्ति (विप्राः) मेधाविनः (महः) मह पूजायाम्-असुन्। महत्त्वम् (अस्य) शूरस्य (सदने) समाजे (यवम्) अन्नम् (न) यथा (वृष्टिः) जलवर्षणम् (दिव्येन) दिवि आकाशे भवेन (दानुना) दाभाभ्यां नुः। उ० ३।३२। ददातेः-नु। जलदानेन ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
রাজপ্রজাকর্তব্যোপদেশঃ
भाषार्थ
(ন) যেমন (আপঃ) নদী-সমূহ (সিন্ধুম্ অভি) সমুদ্রে এবং (ইব) যেমন (কুল্যাঃ) নালা (হ্রদম্) হ্রদে [মিলিত হয়ে প্রবাহিত হয়], তেমনই (যৎ) যখন (সোমাসঃ) সোম [ঐশ্বর্য] (ইন্দ্রম্) ইন্দ্র [মহাপ্রতাপী পুরুষ] এর সাথে (সমক্ষরন্) মিলে বয়ে এসেছে, [তখন] (বিপ্রাঃ) বুদ্ধিমানগণ (অস্য) এই [বীর] এর (মহঃ) মহত্ত্ব/প্রশংসাকে (সদনে) সমাজের মাঝে (বর্ধন্তি) বর্ধিত করে, (ন) যেরকম (যবম্) অন্নকে (বৃষ্টিঃ) বৃষ্টি (দিব্যনে) দিব্য আকাশ থেকে আগত (দানুনা) জলদান দ্বারা [বৃদ্ধি করে]।।৭।।
भावार्थ
যে মহাপ্রতাপী রাজা সকল প্রকারে ঐশ্বর্যবান্, বিদ্বানগণ তাঁর গুণসমূহের প্রশংসা করে উন্নতি লাভ করুক।।৭।।
भाषार्थ
(আপঃ) নদী-সমূহের জল (ন) যেমন (সিন্ধুম্ অভি) সমুদ্রের দিকে (যৎ) যখন (সমক্ষরন্) একসাথে প্রবাহিত হয়, তথা (কুল্যাঃ) নালা (ইব) যেমন (হ্রদম্) পুকুরের দিকে প্রবাহিত হয়, তেমনই (সোমাসঃ) সব ভক্তিরস (ইন্দ্রম্) পরমেশ্বরের দিকে প্রবাহিত হয়। (সাদনে) হৃদয়-সদনে পরমেশ্বর স্থিত হলে (বিপ্রাঃ) মেধাবী উপাসক (অস্য) এই পরমেশ্বরের (মহঃ) মহিমা (বর্ধন্তি) বর্ধিত করে। (ন) যেমন (দিব্যেন দানুনা) পরমেশ্বরের দিব্য জ্ঞান দ্বারা (বৃষ্টিঃ) বর্ষা (যবম্) যব আদি বৃদ্ধি করে।
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