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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 17 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 17/ मन्त्र 2
    ऋषिः - कृष्णः देवता - इन्द्रः छन्दः - जगती सूक्तम् - सूक्त-१७
    58

    न घा॑ त्व॒द्रिगप॑ वेति मे॒ मन॒स्त्वे इत्कामं॑ पुरुहूत शिश्रय। राजे॑व दस्म॒ नि ष॒दोऽधि॑ ब॒र्हिष्य॒स्मिन्त्सु सोमे॑ऽव॒पान॑मस्तु ते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । घ॒ । त्व॒द्रिक् । अप॑ । वे॒ति॒ । मे॒ । मन॑: । त्वे इति॑ । इत् । काम॑म् । पु॒रु॒ऽहू॒त॒ । शि॒श्र॒य॒ ॥ राजा॑ऽइव । द॒स्म॒ । नि । स॒द॒: । अधि॑ । ब॒र्हिषि॑ । अ॒स्मिन् । सु । सोमे॑ । अ॒व॒ऽपान॑म् । अ॒स्तु॒ । ते॒ ॥१७.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न घा त्वद्रिगप वेति मे मनस्त्वे इत्कामं पुरुहूत शिश्रय। राजेव दस्म नि षदोऽधि बर्हिष्यस्मिन्त्सु सोमेऽवपानमस्तु ते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न । घ । त्वद्रिक् । अप । वेति । मे । मन: । त्वे इति । इत् । कामम् । पुरुऽहूत । शिश्रय ॥ राजाऽइव । दस्म । नि । सद: । अधि । बर्हिषि । अस्मिन् । सु । सोमे । अवऽपानम् । अस्तु । ते ॥१७.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 17; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (पुरुहूत) हे बहुत प्रकार से बुलाये गये ! (त्वद्रिक्) तेरी ओर गया हुआ (मे) मेरा (मनः) मन (न घ) न कभी (अप वेति) भटकता है, (त्वे) तुझमें (इत्) ही (कामम्) [अपनी] आशा को (शिश्रय) मैंने ठहराया है। (दस्म) हे दर्शनीय ! (राजा इव) राजा के समान (बर्हिषि) उत्तम आसन पर (अधि) अधिकारपूर्वक (नि षदः) तू बैठ, और (अस्मिन्) इस (सोमे) ऐश्वर्य में (ते) तेरा (अवपानम्) निश्चित रक्षा कर्म (सु) सुन्दर रीति से (अस्तु) होवे ॥२॥

    भावार्थ

    प्रजागण पूर्ण राजभक्ति से उचित उपहार देकर धर्मात्मा राजा को प्रसन्न रक्खें ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(न घ) न कदापि (त्वद्रिक्) युष्मद्+अञ्चु गतिपूजनयोः-क्विन्। विष्वग्देवयोश्च टेरद्र्यञ्चतावप्रत्यये। पा० ६।३।९२। इति सर्वनाम्नः टेः अद्रि इत्यादेशः। अचः। पा० ६।४।१३८। लुप्तनकारस्याञ्चतेर्भस्य अकारस्य लोपः। त्वां गच्छत् (अप वेति) अपगच्छति (मे) मम (मनः) चित्तम् (त्वे) शे इत्यादेशः। त्वयि (इत्) एव (कामम्) आशाम् (पुरुहूत) हे बहुविधाहूत (शिश्रय) श्रिञ् सेवायाम्-लिट्। अहमाश्रितवान् स्थापितवानस्मि (राजा) (इव) (दस्म) इषियुधीन्धिदसि०। उ० ४।१४। दसु उपक्षये, यद्वा, दस दसि दर्शनसन्दशनयोः-मक्। हे दर्शनीय (नि षदः) लेटि रूपम्। निषीद (अधि) अधिकारपूर्वकम् (बर्हिषि) उत्तमासने (अस्मिन्) (सु) सुष्ठु (सोमे) ऐश्वर्ये (अवपानम्) निश्चितरक्षणम् (अस्तु) (ते) तव ॥

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    विषय

    मे मनः त्वद्रिक

    पदार्थ

    १. हे (पुरुहूत) = पालक व पूरक आह्वानवाले प्रभो! (त्वद्रिक) = आपकी ओर गतिवाला (मे मनः) = मेरा मन (घ) = निश्चय से (न अपवेति) = आपसे कभी दूर नहीं होता। (वे इत्) = आपमें ही (कामम्) = अभिलाषा को (शिश्रय) = आश्रित करता है, अर्थात् मेरा मन सदा आपकी ओर आता है मेरी अभिलाषा आपको ही प्राप्त करने की है। २. हे (दस्म) = शत्रुओं के विनाशक प्रभो| (राजा इव) = मेरे शासक के समान आप (बर्हिषि अधि) = इस मेरे वासनाशून्य हृदयासन पर निषदः आसीन होइए। इस आसन पर बैठकर (अस्मिन् सोमे) = इस सोम के विषय में (ते) = आपका (अवपानम्) = अवपान–शरीर के अंग-प्रत्यंगों में ही रक्षण सुसम्यक्तया (अस्तु) = हो। आपके हृदयासीन होने पर यहाँ वासनाएँ न होंगी और सोम [वीर्य] शरीर में ही सुरक्षित रहेगा।

    भावार्थ

    हम मन को सदा प्रभु में लगाएँ, हमारी अभिलाषा प्रभु को प्राप्त करने की हो। प्रभु हमारे हृदयासन के राजा हों, जिससे शरीर में सोम का रक्षण सम्यक्तया हो।

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    भाषार्थ

    (पुरुहूत) हे बार-बार पुकारे गये परमेश्वर! (मे) मेरा (मनः) मन (घ) निश्चय से (त्वत् रिक्) आपसे अतिरिक्त (न अप वेति) अर्थात् आपसे हट कर और कहीं नहीं जाता। वह मन (त्वे इत) आप में ही (कामम्) यथेच्छ (शिश्रिय) आश्रय पाता है। (दस्म) हे पाप-क्षयकारी दर्शनीय परमेश्वर! आप (राजा इव) राजा के समान (बर्हिर्षि अधि) मेरे हृदयासन पर (निषदः) नितरां विराजिए। और (अस्मिन्) इस मेरे (सुसोमे) भक्तिरस में (ते) आपका (अवपानम्) रस-पान (अस्तु) हो।

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    विषय

    परमेश्वरोपासना

    भावार्थ

    हे इन्द्र ! हे (पुरुहूत) समस्त प्रजाओं द्वारा पुकारे गये सबके स्तुत्य परमेश्वर ! (मे मनः) मेरा मन (त्वद्विग्) तेरी तरफ जाकर फिर (न घ अप वेति) तुझसे दूर नहीं जाता। (त्वे इत्) तुझमें ही (कामम्) समस्त इच्छा मनोरथ कामनाओं और आशाओं को (शिश्रय) रख देता है। हे (दस्म) दर्शनीय ! अनुपम सुन्दर ! (अधि बर्हिषि) आसन या प्रजाके पर जिस प्रकार (राजा इव) राजा विराजता है उस प्रकार (अस्मिन् बर्हिषि) इस महान् ब्रह्माण्ड में तू (अधि निषदः) अधिष्ठाता रूप से विराजता है। (अस्मिन् सोमे) इस महान् संसार में ही या इस सोमस्वरूप आत्मा में ही (ते) तेरा (अवपानम् अस्तु) अबपान तृप्तिकारक ज्ञानरस प्राप्त हो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-१० कृष्ण ऋषिः। १२ वसिष्ठः। इन्द्रो देवता। १-१० जगत्यः। ११,१२ त्रिष्टुभौ। द्वादशर्चं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indr a Devata

    Meaning

    Indra, lord universally invoked and celebrated, may my mind and soul having surrendered its love and ambition to you, never go astray from the presence such as yours. O lord beatific and glorious, you abide on my vedi and in my heart as the sovereign ruling presence. May your divine love, joy and protection ever abide in this mind and soul and bless it with peace and joy in your presence.2. Indra, lord universally invoked and celebrated, may my mind and soul having surrendered its love and ambition to you, never go astray from the presence such as yours. O lord beatific and glorious, you abide on my vedi and in my heart as the sovereign ruling presence. May your divine love, joy and protection ever abide in this mind and soul and bless it with peace and joy in your presence.

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    Translation

    O All-worshipped mighty Divinity, my mind directed into you never deviate from you as I set all my hopes and expectation unto you. O admirable one, you like a king sitting on seat sit in my heart., In this world protection provided by you is excellent.

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    Translation

    O All-worshipped mighty Divinity, my mind directed into you never deviate from you as I set all my hopes and expectation unto you. O admirable one, you like a king sitting on seat sit in my heart. In this world protection provided by you is excellent.

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    Translation

    O much-invoked God, my mind has fully set all its desires on Thee. It does not go astray from Thee. O Beautiful One, Thou art well-installed in this vast universe like a king on his throne. Let Thy satisfying sweet juice of spiritual knowledge be installed in this soul (i.e., of devotee).

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(न घ) न कदापि (त्वद्रिक्) युष्मद्+अञ्चु गतिपूजनयोः-क्विन्। विष्वग्देवयोश्च टेरद्र्यञ्चतावप्रत्यये। पा० ६।३।९२। इति सर्वनाम्नः टेः अद्रि इत्यादेशः। अचः। पा० ६।४।१३८। लुप्तनकारस्याञ्चतेर्भस्य अकारस्य लोपः। त्वां गच्छत् (अप वेति) अपगच्छति (मे) मम (मनः) चित्तम् (त्वे) शे इत्यादेशः। त्वयि (इत्) एव (कामम्) आशाम् (पुरुहूत) हे बहुविधाहूत (शिश्रय) श्रिञ् सेवायाम्-लिट्। अहमाश्रितवान् स्थापितवानस्मि (राजा) (इव) (दस्म) इषियुधीन्धिदसि०। उ० ४।१४। दसु उपक्षये, यद्वा, दस दसि दर्शनसन्दशनयोः-मक्। हे दर्शनीय (नि षदः) लेटि रूपम्। निषीद (अधि) अधिकारपूर्वकम् (बर्हिषि) उत्तमासने (अस्मिन्) (सु) सुष्ठु (सोमे) ऐश्वर्ये (अवपानम्) निश्चितरक्षणम् (अस्तु) (ते) तव ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    রাজপ্রজাকর্তব্যোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (পুরুহূত) হে নানাবিধ প্রকারে আমন্ত্রিত! (ত্বদ্রিক্) তোমার দিকে প্রেরিত (মে) আমার (মনঃ) মন (ন ঘ) না কখনও (অপ বেতি) পথভ্রষ্ট/বিচলিত হয়, (ত্বে) তোমার প্রতি (ইৎ)(কামম্) [নিজের] আশাকে (শিশ্রয়) আমি আবিষ্ট/আশ্রিত/স্থাপিত করেছি। (দস্ম) হে দর্শনীয়! (রাজা ইব) রাজার সমান (বর্হিষি) উত্তম আসনে (অধি) অধিকারপূর্বক (নি ষদঃ) তুমি বসো/স্থিত হও, এবং (অস্মিন্) এই (সোমে) ঐশ্বর্যের মধ্যে (তে) তোমার (অবপানম্) নিশ্চিত রক্ষা কর্ম (সু) সুন্দর রীতিতে (অস্তু) হোক।।২।।

    भावार्थ

    প্রজাগণ পূর্ণ রাজভক্তির সহিত উপযুক্ত উপহার প্রদান করে ধর্মাত্মা রাজাকে প্রসন্ন রাখবে/রাখুক।।২।।

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    भाषार्थ

    (পুরুহূত) হে বারংবার আহূত পরমেশ্বর! (মে) আমার (মনঃ) মন (ঘ) নিশ্চিতরূপে (ত্বৎ রিক্) আপনার অতিরিক্ত (ন অপ বেতি) অর্থাৎ আপনার থেকে দূরে অন্য কোথাও যায় না। সেই মন (ত্বে ইত) আপনার মধ্যেই (কামম্) যথেচ্ছ (শিশ্রিয়) আশ্রয় পায়/প্রাপ্ত হয়/করে। (দস্ম) হে পাপ-ক্ষয়কারী দর্শনীয় পরমেশ্বর! আপনি (রাজা ইব) রাজার সমান (বর্হির্ষি অধি) আমার হৃদয়াসনে (নিষদঃ) নিরন্তর বিরাজ করুন। এবং (অস্মিন্) এই আমার (সুসোমে) ভক্তিরসে (তে) আপনার (অবপানম্) রস-পান (অস্তু) হোক।

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