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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 38

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 38/ मन्त्र 2
    सूक्त - इरिम्बिठिः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-३८

    आ त्वा॑ ब्रह्म॒युजा॒ हरी॒ वह॑तामिन्द्र के॒शिना॑। उप॒ ब्रह्मा॑णि नः शृणु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । त्वा॒ । ब्र॒ह्म॒ऽयुजा॑ । हरी॒ इति॑ । वह॑ताम् । इ॒न्द्र॒ । के॒शिना॑ ॥ उप॑ । ब्रह्मा॑णि । न॒: । शृ॒णु॒ ॥३८.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ त्वा ब्रह्मयुजा हरी वहतामिन्द्र केशिना। उप ब्रह्माणि नः शृणु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । त्वा । ब्रह्मऽयुजा । हरी इति । वहताम् । इन्द्र । केशिना ॥ उप । ब्रह्माणि । न: । शृणु ॥३८.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 38; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    १.है (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! (ब्रह्मयुजा) = ज्ञान के साथ मेलवाले (केशिना) = प्रकाश की रशिमयोंवाले (हरी) = इन्द्रियाश्व (त्वा) = आपको (आवहताम्) = हमारे लिए प्राप्त करानेवाले हों। हम इन्द्रियों के द्वारा ज्ञान-प्राप्ति में प्रवृत्त हुए-हुए अपने में ज्ञानरश्मियों को बढ़ानेवाले हों। यही प्रभु प्राप्ति का मार्ग है। २. हे प्रभो!( उप) = हमें हृदयों में समीपता से प्राप्त हुए-हुए आप (नः) = हमसे किये जानेवाले (ब्रह्माणि) = स्तोत्रों को (शृणु) = सुनिए।

    भावार्थ - इन्द्रियों को ज्ञानप्राप्ति में लगाते हुए हम प्रभु के समीप हों। हृदयस्थ प्रभु के स्तोत्रों का उच्चारण करें।

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