अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 38/ मन्त्र 1
आ या॑हि सुषु॒मा हि त॒ इन्द्र॒ सोमं॒ पिबा॑ इ॒मम्। एदं ब॒र्हिः स॑दो॒ मम॑ ॥
स्वर सहित पद पाठआ । या॒हि॒ । सु॒सु॒म । हि । ते॒ । इन्द्र॑ । सोम॑म् । पिब॑ । इ॒मम् ॥ आ । इ॒दम् । ब॒र्हि: । स॒द॒: । मम॑ ॥३८.१॥
स्वर रहित मन्त्र
आ याहि सुषुमा हि त इन्द्र सोमं पिबा इमम्। एदं बर्हिः सदो मम ॥
स्वर रहित पद पाठआ । याहि । सुसुम । हि । ते । इन्द्र । सोमम् । पिब । इमम् ॥ आ । इदम् । बर्हि: । सद: । मम ॥३८.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 38; मन्त्र » 1
विषय - प्रभु को हृदय में आसीन करना
पदार्थ -
१. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! (आयाहि) = आइए। (हि) = निश्चय से (ते) = आपकी प्राप्ति के लिए ही (सुषुम) = हमने इस सोम का सम्पादन किया है। (इमं सोमं पिब) = आप इस सोम का पान [रक्षण] कीजिए। आपके अनुग्रह से ही हम इस सोम को शरीर में सुरक्षित कर पाएँगे। २. आप सदा ही (मम) = मेरे (इदं बर्हि:) = इस वासनाशून्य हृदय में (आसदः) = आसीन होइए। आपके सानिध्य से ही वासनाओं का यहाँ प्रवेश नहीं होता। वासनाओं के अभाव में ही सोम का पान सम्भव होता है। इस सुरक्षित सोम के द्वारा हम 'सोम' प्रभु को प्राप्त करते हैं।
भावार्थ - प्रभु-प्राप्ति के लिए हम शरीर में सोम का सम्पादन करते हैं। इसके लिए हृदय में प्रभु का ध्यान करते हैं।
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