अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 38/ मन्त्र 3
ब्र॒ह्माण॑स्त्वा व॒यं यु॒जा सो॑म॒पामि॑न्द्र सो॒मिनः॑। सु॒ताव॑न्तो हवामहे ॥
स्वर सहित पद पाठब्र॒ह्माण॑: । त्वा॒ । व॒यम् । यु॒जा । सो॒म॒ऽपाम् । इ॒न्द्र॒ । सो॒मिन॑: । सु॒तऽव॑न्त: । ह॒वा॒म॒हे॒ ॥३८.३॥
स्वर रहित मन्त्र
ब्रह्माणस्त्वा वयं युजा सोमपामिन्द्र सोमिनः। सुतावन्तो हवामहे ॥
स्वर रहित पद पाठब्रह्माण: । त्वा । वयम् । युजा । सोमऽपाम् । इन्द्र । सोमिन: । सुतऽवन्त: । हवामहे ॥३८.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 38; मन्त्र » 3
विषय - ब्रह्माण: सोमिनः
पदार्थ -
१. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! (वयम्) = हम (त्वा युजा) = तुझ साथी के साथ (ब्रह्माण:) = ज्ञानवाले बनते हैं-हम अपने जीवन की साधना इसप्रकार करते हैं कि यह ज्ञान-प्रधान बने। २. (सुतावन्त:) = सोम का सम्पादन करनेवाले हम (सोमपाम्) = सोम का रक्षण करनेवाले ज्ञान को (हवामहे) = पुकारते हैं और (सोमिन:) = सोमी बनते हैं-सोम का रक्षण करनेवाले बनते हैं। इस सुरक्षित सोम ने ही तो हमारी ज्ञानानि को दीप्त करके हमें 'ज्ञानी' [ब्रह्माण:] बनाना है।
भावार्थ - प्रभुरूप मित्र को पाकर हम सोम का रक्षण करते हुए दीप्त ज्ञानाग्निवाले बनें।
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