Sidebar
अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 72/ मन्त्र 1
विश्वे॑षु॒ हि त्वा॒ सव॑नेषु तु॒ञ्जते॑ समा॒नमेकं॒ वृष॑मण्यवः॒ पृथ॒क्स्व: सनि॒ष्यवः॒ पृथ॑क्। तं त्वा॒ नावं॒ न प॒र्षणिं॑ शू॒षस्य॑ धु॒रि धी॑महि। इन्द्रं॒ न य॒ज्ञैश्च॒तय॑न्त आ॒यव॒ स्तोमे॑भिरिन्द्रमा॒यवः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठविश्वे॑षु । हि । त्वा॒ । सव॑नेषु । तु॒ञ्जते॑ । स॒मा॒नम् । एक॑म् । वृष॑ऽमन्यव: । पृथ॑क् । स्व॑१॒रिति॑ स्व॑: । स॒नि॒ष्यव॑: । पृथ॑क् ॥ तम् । त्वा॒ । नाव॑म् । न । प॒र्वणि॑म् । शू॒षस्य॑ । धु॒रि । धी॒म॒हि॒ ॥ इन्द्र॑म् । न । य॒ज्ञै: । चि॒तय॑न्त: । आ॒यव॑: । स्तोमे॑भि: । इन्द्र॑म् । आ॒यव॑: ॥७२.१॥
स्वर रहित मन्त्र
विश्वेषु हि त्वा सवनेषु तुञ्जते समानमेकं वृषमण्यवः पृथक्स्व: सनिष्यवः पृथक्। तं त्वा नावं न पर्षणिं शूषस्य धुरि धीमहि। इन्द्रं न यज्ञैश्चतयन्त आयव स्तोमेभिरिन्द्रमायवः ॥
स्वर रहित पद पाठविश्वेषु । हि । त्वा । सवनेषु । तुञ्जते । समानम् । एकम् । वृषऽमन्यव: । पृथक् । स्व१रिति स्व: । सनिष्यव: । पृथक् ॥ तम् । त्वा । नावम् । न । पर्वणिम् । शूषस्य । धुरि । धीमहि ॥ इन्द्रम् । न । यज्ञै: । चितयन्त: । आयव: । स्तोमेभि: । इन्द्रम् । आयव: ॥७२.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 72; मन्त्र » 1
विषय - यज्ञ स्तोम प्रभु-दर्शन
पदार्थ -
१. हे प्रभो! (वृषमण्यव:) = आपको ही सब सुखों का वर्षक जाननेवाले लोग (हि) = निश्चय से (विश्वेष) = सब (सवनेषु) = यज्ञों में (त्वा) = आपके प्रति (तुञ्जते) = अपने को दे डालते हैं। इन सब यज्ञों को आपसे ही होता हुआ वे देखते हैं। ये सब पृथक-अगल-अलग (स्वः सनिष्यवः) = सुख व प्रकाश को प्राप्त करने की कामनावाले लोग (पृथक्) = अगल-अलग होते हुए भी (समानम्) = सबके प्रति समान (एकम्) = अद्वितीय आपके ही प्रति अपने को दे देनेवाले होते हैं। आपके प्रति अर्पण करते हुए आपकी शक्ति से अपने यज्ञ आदि कर्मों को सिद्ध करनेवाले होते हैं। २. (नावं न पर्षणिम्) = नाव के समान इस भवसागर से पार लगानेवाले तं (त्वा) = उन आपको ही शूषस्य धुरि सब सुखों व बलों के अग्रभाग में (धीमहि) = धारण करते हैं। आप ही सब शक्तियों के देनेवाले हैं, आप ही इन शक्तियों के द्वारा सुखों को प्राप्त कराते हैं। ३. (आयव:) = क्रियाशील मनुष्य (यज्ञैः) = देवपूजा-संगतिकरण व दानरूप धर्मों से (इन्द्रं न) = [न:एव]-उस परमैश्वर्यशाली प्रभु को ही (चितयन्त:) = अपने में चेताने के लिए यत्नशील होते हैं। (आयवः) = ये क्रियाशील मनुष्य (स्तोमेभिः) = स्तुतिसमूहों से (इन्द्रम्) = उस सर्वशक्तिमान् प्रभु को अपने हृदयों में प्रबुद्ध करते हैं। यज्ञों व स्तोत्रों से अपने को प्रभु-दर्शन के योग्य बनाते हैं।
भावार्थ - यज्ञों को करना और उन्हें प्रभु के प्रति अर्पित करना ही मोक्ष व सुख-प्राप्ति का साधन है। प्रभु ही हमें शक्तियों व सुखों को प्राप्त कराते हैं। वे ही भवसागर से तराते हैं। यज्ञों व स्तोत्रों से हम प्रभु-दर्शन के पात्र बनते हैं।
इस भाष्य को एडिट करें