अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 71/ मन्त्र 16
सु॒तेसु॑ते॒ न्योकसे बृ॒हद्बृ॑ह॒त एद॒रिः। इन्द्रा॑य शू॒षम॑र्चति ॥
स्वर सहित पद पाठसु॒तेऽसु॑ते । निऽओ॑कसे । बृ॒हत् । बृ॒ह॒ते ।आ । इत् । अ॒रि: ॥ इन्द्रा॑य । शू॒षम् । अ॒र्च॒ति॒ ॥७१.१६॥
स्वर रहित मन्त्र
सुतेसुते न्योकसे बृहद्बृहत एदरिः। इन्द्राय शूषमर्चति ॥
स्वर रहित पद पाठसुतेऽसुते । निऽओकसे । बृहत् । बृहते ।आ । इत् । अरि: ॥ इन्द्राय । शूषम् । अर्चति ॥७१.१६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 71; मन्त्र » 16
विषय - शत्रु-शोषक बल की अर्चना
पदार्थ -
१. (बृहत्) = वृद्धि को प्राप्त करनेवाला (अरिः) [इयर्ति] = क्रियाशील व्यक्ति (सुते-सुते) = प्रत्येक सोम-सम्पादन का कार्य होने पर (न्योकसे) = निश्चितरूप से हममें निवास करनेवाले (बृहते) = सदा से वृद्ध (इन्द्राय) = परमैश्वर्यशाली प्रभु के लिए प्रभु की प्राप्ति के लिए-(शूषम्) = शत्र-शोषक बल को (अर्चति) = पूजित करता है। २. प्रभु को वही प्राप्त करता है जोकि वृद्धिशील है-क्रियामय जीवनवाला है, सोम का रक्षण करता है और बल का सम्पादन करता है।
भावार्थ - हम सोम का सम्पादन करें, वर्धनशील व क्रियामय जीवनवाले बनें, शक्ति की अर्चना करें, कामादि शत्रुओं का शोषण करके प्रभु को प्राप्त हों। यह शक्ति की अर्चना करनेवाला अंग-प्रत्यंग में प्रत्येक पर्व में शक्तिशाली बनता हुआ 'परुच्छेपः' कहलाता है-पर्व-पर्व में शक्तिवाला। यह इन्द्र की अर्चना करता हुआ कहता है -
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