अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 71/ मन्त्र 8
एमे॑नं सृजता सु॒ते म॒न्दिमिन्द्रा॑य म॒न्दिने॑। चक्रिं॒ विश्वा॑नि॒ चक्र॑ये ॥
स्वर सहित पद पाठआ । ई॒म् । ए॒न॒म् । सृ॒ज॒त॒ । सु॒ते । म॒न्दिम् । इन्द्रा॑य । म॒न्दिने॑ ॥ चक्रि॑म् । विश्वा॑नि । चक्र॑ये ॥७१.८॥
स्वर रहित मन्त्र
एमेनं सृजता सुते मन्दिमिन्द्राय मन्दिने। चक्रिं विश्वानि चक्रये ॥
स्वर रहित पद पाठआ । ईम् । एनम् । सृजत । सुते । मन्दिम् । इन्द्राय । मन्दिने ॥ चक्रिम् । विश्वानि । चक्रये ॥७१.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 71; मन्त्र » 8
विषय - मन्दी+चक्रि [स्तोता क्रियाशील]
पदार्थ -
१. (ईम्) = निश्चय से (सुते) = उत्पन्न होने पर (एनम्) = इस सोम को (आ सृजता) = [पुन: अभ्युन्नयत सा०] शरीर में ऊर्ध्वगतिवाला करने का प्रयत्न करो। ऊध्वरेता बनना ही जीव का मूल कर्त्तव्य है। २. यह सोम (मन्दिने) = [मन्दते: स्तुतिकर्मणः] स्तुति करनेवाले (इन्द्राय) = जितेन्द्रिय पुरुष के लिए (मन्दिम्) = आनन्द व हर्ष का देनेवाला है। यही (विश्वानि चक्रये) = सब कर्तव्य कर्मों को करने के स्वभाववाले जीव के लिए (चक्रिम्) = क्रियाशीलता को उत्पन्न करनेवाला है।
भावार्थ - शरीर में उन्नीत सोम हमें नीरोगता प्राप्त कराके आनन्दित करता है और शक्ति की वृद्धि द्वारा अनथक कार्य करनेवाला बनाता है।
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