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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 71 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 71/ मन्त्र 8
    ऋषिः - मधुच्छन्दाः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-७१
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    एमे॑नं सृजता सु॒ते म॒न्दिमिन्द्रा॑य म॒न्दिने॑। चक्रिं॒ विश्वा॑नि॒ चक्र॑ये ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । ई॒म् । ए॒न॒म् । सृ॒ज॒त॒ । सु॒ते । म॒न्दिम् । इन्द्रा॑य । म॒न्दिने॑ ॥ चक्रि॑म् । विश्वा॑नि । चक्र॑ये ॥७१.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एमेनं सृजता सुते मन्दिमिन्द्राय मन्दिने। चक्रिं विश्वानि चक्रये ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । ईम् । एनम् । सृजत । सुते । मन्दिम् । इन्द्राय । मन्दिने ॥ चक्रिम् । विश्वानि । चक्रये ॥७१.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 71; मन्त्र » 8
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे विद्वानो !] (सुते) उत्पन्न जगत् में (मन्दिम्) आनन्द बढ़ानेवाले, (चक्रिम्) कार्य सिद्ध करनेवाले (एनम्) इस (ईम्) प्राप्तियोग्य बोध को (मन्दिने) गतिशील, (विश्वानि) सब कर्मों के (चक्रये) कर चुकनेवाले (इन्द्राय) इन्द्र [परम ऐश्वर्यवाले मनुष्य के लिये] (आ) सब प्रकार (सृजत) उत्पन्न करो ॥८॥

    भावार्थ

    विद्वान् लोग शिल्पविद्या से लेकर मोक्षपर्यन्त ज्ञान का उपदेश करके सब मनुष्यों को कर्मवीर बनावें ॥८॥

    टिप्पणी

    ८−(आ) समन्तात् (ईम्) प्राप्तव्यं बोधम् (एनम्) प्रसिद्धम् (सृजत) उत्पादयत। सम्पादयत (सुते) उत्पन्ने जगति (मन्दिम्) खनिकष्यञ्ज्यसिवसि०-उ० ४।१४०। मदि स्तुतिमोदमदस्वप्नकान्तिगतिषु-इप्रत्ययः। आनन्दयितारम् (इन्द्राय) परमैश्वर्यवते मनुष्याय (मन्दिने) अ० २०।१७।४। मोदयित्रे (चक्रिम्) आदृगमहनजनः किकिनौ लिट् च। पा० ३।२।१७१। डुकृञ् करणे-किन्प्रत्ययः। कार्यकर्तारम् (विश्वानि) सर्वाणि कर्माणि अस्य चक्रये इति कृदन्तेन योगेऽपि। न लोकाव्ययनिष्ठाखलर्थतृनाम्। पा० २।३।६९। किकिनौ लिट् चेति किकिनोर्लिड्वद्भावेन षष्ठीनिषेधे द्वितीया (चक्रये) करोतेः किन् पूर्ववत्। कृतवते ॥

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    विषय

    मन्दी+चक्रि [स्तोता क्रियाशील]

    पदार्थ

    १. (ईम्) = निश्चय से (सुते) = उत्पन्न होने पर (एनम्) = इस सोम को (आ सृजता) = [पुन: अभ्युन्नयत सा०] शरीर में ऊर्ध्वगतिवाला करने का प्रयत्न करो। ऊध्वरेता बनना ही जीव का मूल कर्त्तव्य है। २. यह सोम (मन्दिने) = [मन्दते: स्तुतिकर्मणः] स्तुति करनेवाले (इन्द्राय) = जितेन्द्रिय पुरुष के लिए (मन्दिम्) = आनन्द व हर्ष का देनेवाला है। यही (विश्वानि चक्रये) = सब कर्तव्य कर्मों को करने के स्वभाववाले जीव के लिए (चक्रिम्) = क्रियाशीलता को उत्पन्न करनेवाला है।

    भावार्थ

    शरीर में उन्नीत सोम हमें नीरोगता प्राप्त कराके आनन्दित करता है और शक्ति की वृद्धि द्वारा अनथक कार्य करनेवाला बनाता है।

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    भाषार्थ

    (ईम् सुते) भक्तिरस के उत्पन्न हो जाने पर, (मन्दिम्) हर्षप्रद तथा (चक्रिम्) फलोत्पादक (एनम्) इस भक्तिरस को, (मन्दिने) आनन्दधन तथा (विश्वानि चक्रये) विश्व के पुनः-पुनः कर्त्ता (इन्द्राय) परमेश्वर के लिए (आ सृजत) पूर्णतया समर्पित कर दो।

    टिप्पणी

    [इम्=पदपूरणः (निरु০ १.३.९)।]

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    विषय

    परमेश्वर।

    भावार्थ

    हे विद्वान् पुरुषो ! (सुते) उत्पन्न हुए इस संसार में (एनं) इस (मन्दिम्) हर्ष के आश्रय (चक्रिम्) क्रियाशील जीवात्मा को (मन्दिने) आनन्द के उत्पादक (विश्वानि) समस्त लोकों के (चक्रये) जगत् के बनाने वाले (इन्द्राय) परमेश्वर के लिये (सृजत) समर्पण करो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—मधुच्छन्दाः। देवता—इन्द्रः॥ छन्दः—गायत्री॥ षोडशर्चं सूक्तम॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    In dr a Devata

    Meaning

    Scholars of eminence, in this world of Indra’s yajnic creation, come up for the sake of joyous humanity and accomplish all those works of creation and construction which are needed for its prosperity and well-being.

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    Translation

    O learned men you in this world surrender this soul which is the abode of pleasure and endavour to Almighty God who is all-bliss and omnific (Vishvanichakraye).

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    Translation

    O learned men, you in this world surrender this soul which is the abode of pleasure and endeavor to Almighty God who is all-bliss and omnific (Vishvanichakraye).

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    Translation

    O learned persons, let this active-and cheering soul be wholly entrusted to the Beneficent God, the source of aIF.bliss and happiness and Creator of all the Worlds.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ८−(आ) समन्तात् (ईम्) प्राप्तव्यं बोधम् (एनम्) प्रसिद्धम् (सृजत) उत्पादयत। सम्पादयत (सुते) उत्पन्ने जगति (मन्दिम्) खनिकष्यञ्ज्यसिवसि०-उ० ४।१४०। मदि स्तुतिमोदमदस्वप्नकान्तिगतिषु-इप्रत्ययः। आनन्दयितारम् (इन्द्राय) परमैश्वर्यवते मनुष्याय (मन्दिने) अ० २०।१७।४। मोदयित्रे (चक्रिम्) आदृगमहनजनः किकिनौ लिट् च। पा० ३।२।१७१। डुकृञ् करणे-किन्प्रत्ययः। कार्यकर्तारम् (विश्वानि) सर्वाणि कर्माणि अस्य चक्रये इति कृदन्तेन योगेऽपि। न लोकाव्ययनिष्ठाखलर्थतृनाम्। पा० २।३।६९। किकिनौ लिट् चेति किकिनोर्लिड्वद्भावेन षष्ठीनिषेधे द्वितीया (चक्रये) करोतेः किन् पूर्ववत्। कृतवते ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    মনুষ্যকর্ত্যব্যোপদেশঃ

    भाषार्थ

    [হে বিদ্বানগণ !] (সুতে) উৎপন্ন জগতে (মন্দিম্) আনন্দ বৃদ্ধিকারক, (চক্রিম্) কার্য সিদ্ধ কর্তা (এনম্) এই (ঈম্) প্রাপ্তিযোগ্য বোধকে (মন্দিনে) গতিশীল, (বিশ্বানি) সর্ব কর্ম (চক্রয়ে) সম্পন্নকারী (ইন্দ্রায়) ইন্দ্রের [পরম ঐশ্বর্যযুক্ত মনুষ্যের] জন্য (আ) সর্ব প্রকারে (সৃজত) উৎপন্ন করো ॥৮॥

    भावार्थ

    বিদ্বানগণ শিল্পবিদ্যা থেকে শুরু করে মোক্ষ পর্যন্ত জ্ঞানোপদেশপূর্বক সকল মনুষ্যকে কর্মবীর করুক ॥৮॥

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    भाषार्थ

    (ঈম্ সুতে) ভক্তিরস উৎপন্ন হলে, (মন্দিম্) হর্ষপ্রদ তথা (চক্রিম্) ফলোৎপাদক (এনম্) এই ভক্তিরসকে, (মন্দিনে) আনন্দধন তথা (বিশ্বানি চক্রয়ে) বিশ্বের পুনঃ-পুনঃ কর্ত্তা (ইন্দ্রায়) পরমেশ্বরের জন্য (আ সৃজত) পূর্ণরূপে সমর্পিত করো।

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