अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 71/ मन्त्र 16
सु॒तेसु॑ते॒ न्योकसे बृ॒हद्बृ॑ह॒त एद॒रिः। इन्द्रा॑य शू॒षम॑र्चति ॥
स्वर सहित पद पाठसु॒तेऽसु॑ते । निऽओ॑कसे । बृ॒हत् । बृ॒ह॒ते ।आ । इत् । अ॒रि: ॥ इन्द्रा॑य । शू॒षम् । अ॒र्च॒ति॒ ॥७१.१६॥
स्वर रहित मन्त्र
सुतेसुते न्योकसे बृहद्बृहत एदरिः। इन्द्राय शूषमर्चति ॥
स्वर रहित पद पाठसुतेऽसुते । निऽओकसे । बृहत् । बृहते ।आ । इत् । अरि: ॥ इन्द्राय । शूषम् । अर्चति ॥७१.१६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(अरिः) शत्रु (इत्) भी (सुतेसुते) उत्पन्न हुए उत्पन्न हुए पदार्थ में (न्योकसे) निश्चित स्थानवाले, (बृहते) महान् (इन्द्राय) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले परमात्मा] के (बृहत्) बढ़े हुए (शूषम्) बल को (आ) सब प्रकार (अर्चति) पूजता है ॥१६॥
भावार्थ
संसार में विचित्र पदार्थों की रचना और गुण देखकर वेदविरोधी नास्तिक भी परमात्मा के सामर्थ्य को मानकर उसकी शरण लेता है ॥१६॥
टिप्पणी
इति षष्ठोऽनुवाकः ॥ १६−(सुते-सुते) उत्पन्न उत्पन्ने पदार्थे (न्योकसे) अञ्च्यञ्जियुजिभृजिभ्यः कुश्च। उ० ४।२१६। उच समवाये-असुन्, न्यङ्कादित्वात् कुत्वम्। ओक इति निवासनामोच्यते-निरु० २।३।६२। निश्चितनिवासयुक्तस्य (बृहत्) वर्धमानम् (बृहते) महतः (आ) समन्तात् (इत्) एव (अरिः) शत्रुः (इन्द्राय) परमैश्वर्यवतः परमेश्वरस्य (शूषम्) पीयेरूषन्। उ० ४।७६। शुष शोषणे-ऊषन् ङित्। शत्रुशोषकं बलम् निघ० २।९०। (अर्चति) पूजयति ॥
विषय
शत्रु-शोषक बल की अर्चना
पदार्थ
१. (बृहत्) = वृद्धि को प्राप्त करनेवाला (अरिः) [इयर्ति] = क्रियाशील व्यक्ति (सुते-सुते) = प्रत्येक सोम-सम्पादन का कार्य होने पर (न्योकसे) = निश्चितरूप से हममें निवास करनेवाले (बृहते) = सदा से वृद्ध (इन्द्राय) = परमैश्वर्यशाली प्रभु के लिए प्रभु की प्राप्ति के लिए-(शूषम्) = शत्र-शोषक बल को (अर्चति) = पूजित करता है। २. प्रभु को वही प्राप्त करता है जोकि वृद्धिशील है-क्रियामय जीवनवाला है, सोम का रक्षण करता है और बल का सम्पादन करता है।
भावार्थ
हम सोम का सम्पादन करें, वर्धनशील व क्रियामय जीवनवाले बनें, शक्ति की अर्चना करें, कामादि शत्रुओं का शोषण करके प्रभु को प्राप्त हों। यह शक्ति की अर्चना करनेवाला अंग-प्रत्यंग में प्रत्येक पर्व में शक्तिशाली बनता हुआ 'परुच्छेपः' कहलाता है-पर्व-पर्व में शक्तिवाला। यह इन्द्र की अर्चना करता हुआ कहता है -
भाषार्थ
(सुते-सुते) समय-समय पर भक्तिरस के उत्पन्न होने पर, (न्योकसे) नितरां सबके निवासभूत, (बृहते) सब से महान् (इन्द्राय) परमेश्वर के लिए, उपासक, (शूषम्) सुखप्रद (बृहत्) महासामगान (आ अर्चति) अर्चनारूप में पूर्णतया भेंट करता है, क्योंकि यह परमेश्वर (इत्) ही (अरिः) सबका स्वामी है।
टिप्पणी
[अरिः=ईश्वरः (निरु০ ५.२.७)। शूषम्=सुखम् (निघं০ ३.६)। न्योकसे=नि+ओकस्= निवासनाम+चतुर्थ्येकवचन (निरु০ ३.१.३)। ओकः=उच्यते यत्र तत् ओकः, स्थानं वा (उणा০ कोष ४.२१७)।]
विषय
परमेश्वर।
भावार्थ
(बृहत् अरिः इत्) बड़े से बड़ा धन का स्वामी पुरुष भी (सुते सुते) प्रत्येक उत्पन्न पदार्थ से (नि ओकसे) अपने गुप्तरूप से निवास करने वाले (इन्द्राय) परमेश्वर के (शूषम् अर्चति) बल की अर्चना करता है। राजा के पक्ष में—(बृहत् अरिः) बड़े से बड़ा शत्रु भी (सुते सुते न्योकसे) अभिषिक्त, या प्राप्त राष्ट्र राष्ट्र में, अर्थात् राष्ट्र के प्रत्येक भाग में विद्यमान (इन्द्राय) शत्रुनाशक राजा के (शूषम्) शोषणकारी बल को (अर्चति) मानता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—मधुच्छन्दाः। देवता—इन्द्रः॥ छन्दः—गायत्री॥ षोडशर्चं सूक्तम॥
इंग्लिश (4)
Subject
In dr a Devata
Meaning
Even if a person is opposed to faith in Indra and is an enemy of the pious, but (on repentance) offers sincere homage to Him, Great Lord and universal home and haven of everything of the world, worshipped in every act of piety, he is saved. (ii) The pious, and even impious, if one offers homage to Him, Great Lord who is the haven and home of everything in the world, worshipped in every act of piety, he is saved.
Translation
Even the great wealth-possessor praises the power of Almighty God who is dweiling in all the created object and is great.
Translation
Even the great wealth-possessor praises the power of Almighty God who is dwelling in all the created object and is great.
Translation
Even the owner of the greatest wealth and riches seeks and prays for the powerful helping hand of Mighty Lord of fortunes, secretly residing in each and every article of creation.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
इति षष्ठोऽनुवाकः ॥ १६−(सुते-सुते) उत्पन्न उत्पन्ने पदार्थे (न्योकसे) अञ्च्यञ्जियुजिभृजिभ्यः कुश्च। उ० ४।२१६। उच समवाये-असुन्, न्यङ्कादित्वात् कुत्वम्। ओक इति निवासनामोच्यते-निरु० २।३।६२। निश्चितनिवासयुक्तस्य (बृहत्) वर्धमानम् (बृहते) महतः (आ) समन्तात् (इत्) एव (अरिः) शत्रुः (इन्द्राय) परमैश्वर्यवतः परमेश्वरस्य (शूषम्) पीयेरूषन्। उ० ४।७६। शुष शोषणे-ऊषन् ङित्। शत्रुशोषकं बलम् निघ० २।९०। (अर्चति) पूजयति ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
মনুষ্যকর্ত্যব্যোপদেশঃ
भाषार्थ
(অরিঃ) শত্রু (ইৎ) ও (সুতেসুতে) উৎপন্ন-উৎপন্ন পদার্থ সমূহে (ন্যোকসে) নিশ্চিত স্থাননিবাসযুক্ত, (বৃহতে) মহান্ (ইন্দ্রায়) ইন্দ্রের [পরম ঐশ্বর্যবান্ পরমাত্মার] (বৃহৎ) বৃহৎ (শূষম্) বলকে (আ) সর্বতোভাবে (অর্চতি) অর্চনা করে ॥১৬॥
भावार्थ
সংসারের বিচিত্র পদার্থ সমূহের রচনা এবং গুণসমূহ দেখে বেদবিরোধী নাস্তিকও পরমাত্মার সামর্থ্য মান্য করে তাঁর শরণ-আশ্রয় গ্রহণ করে ॥১৬॥ ইতি ষষ্ঠোঽনুবাকঃ ॥
भाषार्थ
(সুতে-সুতে) সময়-সময়ে ভক্তিরস উৎপন্ন হলে, (ন্যোকসে) নিরন্তর সকলের নিবাসভূত, (বৃহতে) সব থেকে মহান্ (ইন্দ্রায়) পরমেশ্বরের জন্য, উপাসক, (শূষম্) সুখপ্রদ (বৃহৎ) মহাসামগান (আ অর্চতি) অর্চনারূপে পূর্ণরূপে অর্পণ করে, কেননা এই পরমেশ্বর (ইৎ) ই (অরিঃ) সকলের/সবকিছুর স্বামী।
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