अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 71/ मन्त्र 13
सं गोम॑दिन्द्र॒ वाज॑वद॒स्मे पृ॒थु श्रवो॑ बृ॒हत्। वि॒श्वायु॑र्धे॒ह्यक्षि॑तम् ॥
स्वर सहित पद पाठसम् । गोऽम॑त् । इ॒न्द्र॒ । वाज॑ऽवत् । अ॒स्मे इति॑ । पृ॒थु । श्रव॑: । बृ॒हत् । वि॒श्वऽआयु: । धे॒हि॒ । अक्षि॑तम् ॥७१.१३॥
स्वर रहित मन्त्र
सं गोमदिन्द्र वाजवदस्मे पृथु श्रवो बृहत्। विश्वायुर्धेह्यक्षितम् ॥
स्वर रहित पद पाठसम् । गोऽमत् । इन्द्र । वाजऽवत् । अस्मे इति । पृथु । श्रव: । बृहत् । विश्वऽआयु: । धेहि । अक्षितम् ॥७१.१३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 71; मन्त्र » 13
विषय - 'विश्वायु-अक्षित' धन
पदार्थ -
१. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! (अस्मे) = हमारे लिए उस (श्रवः) = यशस्वी धन को (संधेहि) = धारण कीजिए जोकि (गोमत्) = प्रशस्त गौओंवाला हो-जिस धन के द्वारा हम घरों में गौवों को रख सकें। (वाजवत्) = प्रशस्त अन्नवाले धन को धारण कीजिए। धन के द्वारा हम शक्तिवर्धक अन्नों को जुटा सकें। यह धन (पृथु) = विस्तारवाला व (बृहत्) = वृद्धिवाला हो। इस धन के विनियोग से हम शक्तियों का विस्तार करते हुए वृद्धि को प्राप्त हों। २. यह धन हमें (विश्वायु:) = पूर्ण जीवन देनेवाला हो। इस धन से हमारे शरीरों में शक्ति का वर्धन हो, मनों में पवित्रता बढ़े, अर्थात् हम यज्ञादि की प्रवृत्तिवाले बनें न कि भोगवृत्तिवाले तथा ज्ञान के साधनों को जुटाते हुए हम दीप्त मस्तिष्कवाले बनें। यह धन (अक्षितम्) = किसी भी प्रकार से हमें क्षीण न करे।
भावार्थ - प्रभु हमें 'गोमान्-वाजवान्-पृथु-बृहत्-विश्वायु-अक्षित' धन प्राप्त कराएँ।
इस भाष्य को एडिट करें