अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 71/ मन्त्र 4
ए॒वा ह्य॑स्य सू॒नृता॑ विर॒प्शी गोम॑ती म॒ही। प॒क्वा शाखा॒ न दा॒शुषे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठए॒व । हि । अ॒स्य॒ । सू॒नृता॑ । वि॒ऽर॒प्शी । गोऽम॑ती । म॒ही ॥ प॒क्वा । शाखा॑ । न । दा॒शुषे॑ ॥७१.४॥
स्वर रहित मन्त्र
एवा ह्यस्य सूनृता विरप्शी गोमती मही। पक्वा शाखा न दाशुषे ॥
स्वर रहित पद पाठएव । हि । अस्य । सूनृता । विऽरप्शी । गोऽमती । मही ॥ पक्वा । शाखा । न । दाशुषे ॥७१.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 71; मन्त्र » 4
विषय - सूनृता, मही, पक्वा शाखा न [वेदवाणी]
पदार्थ -
१. (एवा) = गतमन्त्र के अनुसार सोमपायी बनने पर (हि) = निश्चय से (अस्य) = इस ज्ञानरूप परमैश्वर्यवाले प्रभु की (सूनृता) = [सु ऊन ऋत] उत्तम, दुःखों का परिहाण करनेवाली तथा सत्यज्ञान देनेवाली वेदवाणी (विरप्शी) = विविध सत्यविद्याओं का प्रतिपादन करनेवाली होती है [रप्-व्यक्तायां वाचि]। (गोमती) = यह वेदवाणी प्रशस्त इन्द्रियोंवाली है। अध्ययन करनेवाले की इन्द्रियों को निर्मल बनाती है। (मही) = [मह पूजायाम्] अपने उपासक की मनोवृत्ति को पूजावाली बनाती है। वेदवाणी का उपासक ज्ञानपूर्ण मस्तिष्कवाला-यज्ञादि कर्मों में लगी हुई प्रशस्त इन्द्रियोंवाला तथा मन में पूजा की वृत्तिवाला होता है। २. यह वेदवाणी (दाशुषे) = दाश्वान् के लिए-दानशील के लिए (पक्वा शाखा न)-= परिपक्व शाखा के समान होती है। यह उसके लिए परिपक्व शाखा के समान विविध फलों को प्राप्त करानेवाली होती है। इस वेदवाणी से इसे 'क्षीर, सर्पि, मधु, उदक [सामवेद १२९९] पुण्यभक्ष व अमृतत्व [१३०३ साम] प्राप्त होता है। यह उसे 'आयु-प्राण-प्रजा-पशु-कीर्ति-द्रविण व ब्रह्मवर्चस्' [अथर्व] प्रास कराती है।
भावार्थ - वेदवाणी सब सत्यविद्याओं की प्रतिपादक है। यह धनों को देनेवाली है। पूजा की वृत्ति को प्राप्त कराती है तथा इष्टफलों को देनेवाली है।
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