अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 71/ मन्त्र 5
ए॒वा हि ते॒ विभू॑तय ऊ॒तय॑ इन्द्र॒ माव॑ते। स॒द्यश्चि॒त्सन्ति॑ दा॒शुषे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठए॒व । हि । ते॒ । विऽभू॑तय: । ऊ॒तय॑: । इ॒न्द्र॒ । माऽव॑ते ॥ स॒द्य: । चि॒त् । सन्ति॑ । दा॒शुषे॑ ॥७१.५॥
स्वर रहित मन्त्र
एवा हि ते विभूतय ऊतय इन्द्र मावते। सद्यश्चित्सन्ति दाशुषे ॥
स्वर रहित पद पाठएव । हि । ते । विऽभूतय: । ऊतय: । इन्द्र । माऽवते ॥ सद्य: । चित् । सन्ति । दाशुषे ॥७१.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 71; मन्त्र » 5
विषय - मावान्-दाश्वान्
पदार्थ -
१. (एवा) = इसप्रकार (हि) = निश्चय से हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! (ते विभूतयः) = आपके ऐश्वर्य हैं। ये ऐश्वर्य (मावते) = [प्रमावते] ज्ञानवाले पुरुष के लिए, (ऊतयः) = रक्षा के साधन होते हैं। ज्ञान के द्वारा इनका ठीक प्रयोग करते हुए हम जीवन को 'सत्य-शिव व सुन्दर' बना पाते हैं। २. ये ऐश्वर्य (दाशुषे) = दाश्वान-दानशील-लोभरहित पुरुष के लिए (चित्) = निश्चय से (सद्य:) = शीन (सन्ति) = प्राप्त होते हैं। त्यागशील पुरुष ही इनसे लाभान्वित हो पाता है।
भावार्थ - हम ज्ञानवान् व त्यागशील बनकर प्रभु के सब पदार्थों का ठीक व मात्रा में प्रयोग करते हुए अपने कल्याण को सिद्ध करें-अपने जीवन को सुरक्षित बनाएँ।
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