अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 71/ मन्त्र 9
मत्स्वा॑ सुशिप्र म॒न्दिभि॒ स्तोमे॑भिर्विश्वचर्षणे। सचै॒षु सव॑ने॒ष्वा ॥
स्वर सहित पद पाठमत्स्व॑ । सु॒ऽशि॒प्र॒ । म॒न्दिऽभि॑: । स्तोमे॑भि: । वि॒श्व॒ऽच॒र्ष॒णे॒ । सचा॑ । ए॒षु । सव॑नेषु । आ ॥७१.९॥
स्वर रहित मन्त्र
मत्स्वा सुशिप्र मन्दिभि स्तोमेभिर्विश्वचर्षणे। सचैषु सवनेष्वा ॥
स्वर रहित पद पाठमत्स्व । सुऽशिप्र । मन्दिऽभि: । स्तोमेभि: । विश्वऽचर्षणे । सचा । एषु । सवनेषु । आ ॥७१.९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 71; मन्त्र » 9
विषय - 'सुशिप्र' बनना
पदार्थ -
१. प्रभु जीव से कहते हैं-हे (सुशिप्र) = [हनू नासिके वा नि०६.२७]-शोभन हनुओं व नासिका-छिद्रोंबाले जीव! हनुओं द्वारा भोजन को खूब चबाकर खानेवाले तथा नासिका-छिद्रों से प्राणसाधना करनेवाले पूर्ण नीरोग व निर्दोष जीवनवाले जीव! तू (मन्दिभि:) = आनन्द देनेवाले (स्तोमेभि:) = प्रभु-स्तवनों से (मत्स्व) = एक मस्ती का अनुभव कर-तेरा हृदय प्रभु-स्तवन द्वारा आनन्द से परिपूर्ण हो जाए। खूब चबाकर खाने से भोजन का सम्यक् परिपाक होकर बीर्य आदि धातुओं का उत्तम निर्माण होगा। प्राणसाधना से इस वीर्य की ऊर्ध्वगति होगी। प्रभु-स्तवन भी इस कार्य में सहायक होगा। अब जीवन में एक मस्ती का अनुभव होगा। २. हे (विश्वचर्षणे) = सब मनुष्यों का ध्यान करनेवाले स्तोता! (एषु सवनेषु) = जीवन के प्रात:-माध्यन्दिन व सायन्तन' सवनों में (सचा) = सदा सोम के साथ रहता हुआ [सह] अथवा सोम का शरीर में ही समवाय [षच् समवाये] करता हुआ आ [गच्छ] तू हमारे प्राति आ।
भावार्थ - हम खूब चबाकर भोजन करते हुए वीर्य का सुन्दर निर्माण करें। प्राणसाधना द्वारा वीर्य की ऊर्ध्वगतिवाले हों। प्रभु-स्तवन में एक मस्ती का अनुभव करें। लोकहित में रत हुए हुए सदा सोम-रक्षण द्वारा प्रभु को प्राप्त करें।
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