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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 71

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 71/ मन्त्र 1
    सूक्त - मधुच्छन्दाः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-७१

    म॒हाँ इन्द्रः॑ प॒रश्च॒ नु म॑हि॒त्वम॑स्तु व॒ज्रिणे॑। द्यौर्न प्र॑थि॒ना शवः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    म॒हान् । इन्द्र॑: । प॒र: । च॒ । नु । म॒हि॒ऽत्वम् । अ॒स्तु॒ । व॒ज्रिणे॑ । द्यौ: । न । प्र॒थि॒ना । शव॑: ॥७१.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    महाँ इन्द्रः परश्च नु महित्वमस्तु वज्रिणे। द्यौर्न प्रथिना शवः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    महान् । इन्द्र: । पर: । च । नु । महिऽत्वम् । अस्तु । वज्रिणे । द्यौ: । न । प्रथिना । शव: ॥७१.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 71; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    १. वे (इन्द्र:) = परमैश्वर्यशाली प्रभु (महान्) = महान् हैं-पूजनीय हैं और (नु च) = अब निश्चय से (परः) = सर्वोत्कृष्ट है। उस प्रभु की महिमा अनन्त है, उनकी महिमा का वर्णन शब्दों से परे है। (वज्रिणे) = उस वज्रहस्त प्रभु के लिए (महित्वम् अस्तु) = हमारे हृदयों में पूजा का भाव हो। २. उस प्रभु का (शव:) = बल (द्यौः न प्रथिना) = आकाश के समान सर्वत्र फैला हुआ है। आकाश में सर्वत्र प्रभु की शक्ति दृष्टिगोचर होती है।

    भावार्थ - सर्वत्र प्रभु की शक्ति को कार्य करता हुआ देखते हुए हम प्रभु का पूजन करें।

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